Thursday, August 28, 2014

PIERCING EARS कर्ण वेध-कन्छेदन :: HINDU PHILOSOPHY (4.10 ) हिन्दु दर्शन

PIERCING EARS
कर्ण वेध-कन्छेदन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

इस संस्कार के तहत बालक-बालिका के कान छेदे जाते हैं। मूलों में पैदा हुए बालक का कर्णवेध अनिवार्य है। 
"कृत चूडे च बाले च कर्णवेधो विधीयते"। 
जिसका चूड़ाकरण हो गया हो, उस बालक का कर्णवेध करना चाहिये। बालक के जन्म के तीसरे अथवा 5 वें वर्ष में यह संस्कार किया जा सकता है।[व्यास स्मृति 1.19]
"कर्णवेधं प्रशंसन्ति पुष्ट्यायु: श्री विवृद्धये"
दीर्घायु और और धन-सम्पत्ति की वृद्धि के सन्दर्भ में यह संस्कार प्रशंसनीय है।[गर्ग] 
दोनों कानों में वेध करके उनकी नस को ठीक करने के लिये सुवर्ण के कुण्डल पहनाये जाते हैं। यह क्रिया बालक के शरीर की रक्षा भी करती है। कुण्डल आभूषण हैं। 
रक्षाभूषणनिमित्तं बालकस्य कर्णौ विध्येते। ...
पूर्वं दक्षिण कुमारस्य, वामं कुमार्या:, ततः पिचुवर्ति प्रवेशयेत्
शुभ मुहूर्त में और नक्षत्र में मांगलिक कृत्य एवं स्वस्तिवाचन करके कुमार को माता की गोदी में बैठाकर खिलौनो से बहलाते हुए, पुचकारते हुए कनछेदन करना चाहिये। पुत्र का दाहिना कान पहले छेदा है और पुत्री का बायाँ कान पहले छेदा जाता है। कन्या की नाक भी छेदी जाती है। बींधने के बाद छेद में पिचुवर्ति (कपड़े की नरम बत्ती पहना देनी चाहिये। सामन्यतया लोग-बाग नीम के पत्ते की सींक इन छेदों में डालते हैं जो कान या नाक को पकने नहीं देती।[सुश्रुत संहिता सूत्र 16.3] 
छेड़ के पुष्ट हो जाने के बाद सोने के कुण्डल पहनाने से बालक की रोगाणुओं और जीवाणुओं से रक्षा होती है। बालिका की नाक में नथ उसकी सूक्ष्म जीवाणुओं और अन्य रोगों से रक्षा करती है। छेड़ इतना बड़ा हो कि सूर्य की किरण उसके पार जा सके।
कर्णव्यधे कृतो बालो न ग्रहैरभिभूयते। 
भूष्यतेऽस्य मुखं तस्मात् कायस्तत् कर्णयोव्र्यध:॥ 
कर्णवेधन संस्कार से बालारिष्ट उत्पन्न करनेवाले बालग्रहों से बालक की रक्षा होती है और कुण्डल आदि धारण करने से मुख की शोभा बढ़ती है।[कुमार तंत्र-चक्रपाणि]  
पुरोहित-पण्डित जी से शुभ महूर्त-घड़ी, नक्षत्र दिखाकर बालक का पिता प्रातःकाल, नित्य कर्मों से निवृत होकर पूजास्थल पर पूजा स्थल पर अपने आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जाये। बालक को गोदी में लेकर माता भी दाहिनी ओर आसन ग्रहण करे। पण्डित जी सभी यज्ञ-हवन सामग्रियों सहित अन्य आवश्यक वस्तुओं को उचित स्थान पर रख देंगे। दीपक प्रज्वलित करें।  आचमन,प्राणायाम, पवित्री धारण आदि कर्म करके कर्णभेदन हेतु संकल्प पण्डित जी के आदेशानुसार करें। 
दाहिने हाथ में जल, पुष्प, कुश, आदि लेकर संकल्प करें। 
संकल्प :: 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे षष्टि-संवत्सराणां मध्ये ...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते गोत्र सपत्नीक:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं...राशे:...नाम्न: मम पुत्रस्य बीजगर्भ समुद्ध वैनो निर्बहन पुष्ट्यायुः श्री वृद्धि द्वारा श्री परमेश्वर प्रीतये कर्णवेधाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन गणपतिसहितगौर्याषोडशमातृणां पूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं सांकल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। 
हाथ का संकल्प जल छोड़ दें। तत्पश्चात गणपत्यादि पूजन सम्पन्न करें। 
तदनन्तर कलश की स्थापना करके उसमें ब्रह्मा जी, वरुण देव सहित सूर्यादि नवग्रहों का आवाहन करें तथा किसी पात्र में जल लेकर, उस जल में केशवादि देवों का नाममन्त्रों से आवाहन करें। 
प्रतिष्ठा :: हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र से कलश तथा जल में आवाहित देवों की प्रतिष्ठा करें।
ॐ एतं ते देव सवितर्यज्ञ प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे।
तेन यज्ञमव  तेन यज्ञपतिं तेन मामव॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः कलशे ब्रह्मवरुणेरुद्रसहिता आदित्यादि नवग्रहा: जले केशवादीदेवाः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु। 
सब पर अक्षत छोड़ें।  
देव पूजन :: तदनन्तर निम्न नाममन्त्रों के द्वारा पहले नवग्रहों का गन्धादि उपचारों से पूजन करें। 
(1). ॐ ब्रह्मणे नमः, (2). ॐ वरुणाय नमः, (3). ॐ सूर्याय नमः, (4). ॐ चन्द्रमसे नमः, (5). ॐ भौमाय नमः, (6). ॐ बुधाय नमः, (7). ॐ गुरुवे नमः, (8). ॐ शुक्राय नमः, (9). ॐ शनेश्चराय नमः, (10). ॐ राहवे नमः, (11). ॐ केतवे नमः। 
तदनन्तर जल में आवाहित देवों  का गन्धादि उपचारों से निम्न नाम मन्त्रों से पूजन करें :-
(1). ॐ केशवाय नमः, (2).ॐ हराय नमः, (3).ॐ ब्रह्मणे नमः, (4).ॐ चन्द्राय नमः, (5). सूर्याय नमः, (6). दिगीशेभ्यो नमः, (7). नासत्याभ्यां नमः, (8). सरस्वत्यै नमः, (9).  ॐ ब्राह्मणेभ्यो नमः,  (10).  ॐ   गवे  नमः, (11). ॐ गुरुभ्यो  नमः। 
इस प्रकार पूजन करके नीराजन तथा पुष्पांजलि प्रदान करें। 
तदनन्तर अपने कुलदेवता, वैद्य, ब्राह्मणों तथा कर्णछेदन करने वाले को नमस्कार करके माता की गोदी में वस्त्राभूषणों से अंलकृत पूर्वाभिमुख बालक के हाथ में गुड़, मोदक, मिठाई आदि मधुर द्रव्य देना चाहिये। बालक को रुचिकर लगे तो कोई खिलौना भी देना चाहिये; ताकि बालक का ध्यान खाने-खेलने में लगा रहे और उसको कर्ण वेधन की पीड़ा का ध्यान-अनुभव न हो। 
कानों का अभिमंत्रण :: तदनन्तर पिता निम्न मंत्र से पहले बालक के दाहिने कान को जल से धोकर अभिमंत्रण करें :- 
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्जन्ना:
स्थिरैरङ्गे स्तुष्टुवा ँ ् सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः
इसी प्रकार से बायें कान का अभिमंत्रण निम्न मंत्र से करें :- 
ॐ वक्ष्यन्तिवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियः ँ ् सखायं परिषस्वजाना। 
योषेव शिङ्के वितताधि धन्वञ्जया इय ँ ् समने पारयन्ति
कानों का वेधन :: अभिमन्त्रण सौभाग्यवती स्त्री अलक्तक अथवा लाल राग से पहले दाहिने कान में छेदे जाने वाले स्थान को चिन्हित करें-निशान लगायें, तदनन्तर स्वर्णकार-सुनार, कुशल नाई या किसी दक्ष व्यक्ति से चिन्हित स्थान पर मांगलिक डोरे-धागे से युक्त सुवर्ण, चाँदी या ताँबे की सुई द्वारा छेदन करें और सुई को अलग करके मांगलिक धागे को कुण्डल की भाँति कान में बाँध दें। इसी प्रकार बायें कान में भी छेदन करना चाहिये।[यजुर्वेद 29.21, 40] 
कन्याओं का पहले बायें कान का वेधन करके फिर दायें कान का वेधन करें। कन्याओं की नासिका-नाक के वाम भाग (आभूषण धारण करने के लिये) का भी वेधन अमन्त्रक करना चाहिये। 
दक्षिणा एवं ब्राह्मण भोजन :: आचार्य को दक्षिणा देने अनन्तर हाथ में जल अक्षत लेकर भूयसी दक्षिणा तथा ब्राह्मण भोजन के निम्न संकल्प करें :-
ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगणगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ...गोत्रोत्पन्नोऽहं ...राशे: मम बालकस्य कर्णवेधनकर्मणः साङ्गफलप्राप्तये तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये। ॐ तत्सन्न मम। तथा यथोपन्नेनान्नेन दश यथासंख्याकान् वा ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। 
संकल्प जल छोड़ दें। सभी गुरुजनों-आचार्यों को दक्षिणा प्रदान करें।
विसर्जन :: इसके बाद आवाहित सभी देवताओं पर अक्षत-पुष्प आदि समर्पित करके निम्न मंत्र से विसर्जन करें :-
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। 
इष्टकामसमृद्धय्र्थं पुनरागमनाय च॥ 
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
इसी प्रकार कन्या का भी चूड़ाकरण संस्कार अमन्त्रक करना चाहिये।
नीराजन :: देवता को दीपक दिखाने की क्रिया (आरती उतारना-वारना, दीपदान), प्राचीन काल में युद्ध से पूर्व राजाओं के यहाँ होने वाला एक पर्व जिसमें हथियार साफ़ करके चमकाए जाते थे, हथियारों को साफ़ करके चमकाने की क्रिया या भाव।
अलक्तक ::  वृक्षों से निकलने वाला एक प्रकार का लाल रस-अलता; जिसे स्त्रियाँ पैरों में लगाती हैं-महावर।

    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा