CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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"चतुर्थे मासे निष्क्रमणिका; सूर्यमुदीक्षयति तच्चक्षुरिति"
निष्क्रमण संस्कार बालक के जन्म के चौथे महीने के बाद करना चाहिये। व्यवहार की सुविधा के लिये शिष्टजन अक्सर नामकरण संस्कार के अनन्तर ही अपकृष्ट करके इस कर्म को भी सम्पन्न कर लेते हैं।[पारस्कर ग्रह सूत्र 1.17.5-6]
"द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्"
शिशु को सूतिका गृह से बाहर लाकर भगवान् सूर्य का दर्शन कराया जाता है।[भविष्योत्तर पुराण]
"अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथम निर्गमः"
इसका तात्पर्य यह है कि निष्क्रमण कर्म के पहले शिशु को घर के अन्दर ही रखना चाहिये।[बृहस्पति]
इसमें प्रमुख कारण यह है कि इस वक्त तक शिशु की आँखें कोमल और कच्ची रहती हैं। यदि शिशु को जल्दीबाज़ी में सूर्य के तेज प्रकाश में लाया जायेगा तो उसकी आँखों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। भविष्य में उसकी आँखों की शक्ति या तो मन्द रहेगी या उसका शीघ्र ह्रास होगा। इसी वजह से सूतिका गृह में तेज रौशनी अथवा शीशा नहीं लगाया जाता और उसके बाद भी काफी समय तक बच्चे को शीशा नहीं देखने दिया जाता। शीशे की चमक बच्चे की कच्ची आँखों को चौंधिया देती है। इसी वजह से सूतिका गृह में तेज रौशनी नहीं की जाती। धीरे धीरे शिशु में शक्ति का संचय होने पर दीपक के साथ उसे घर से बाहर की तेज रौशनी का अभ्यस्त बनाया जाता है। यद्यपि बिना संस्कार के उसे लाभ प्राप्त होना असंभव है, तथापि मन्त्रों के साथ होने पर उनका प्रभाव अमोध और दीर्घ कालीन होता है। इससे शास्त्र की मर्यादा भी बनी रहती है। संस्कार भी विहित विधि-विधान के अनुसार ही करना चाहिये।
मेरे लड़के का जन्म अस्पताल में हुआ था। उसको शाम के समय तिपहिया रिक्शा से घर पर लाया गया। उसका रंग दूध की गोरा था मगर उसके तुरन्त बाद उसका रंग साँवला हो गया और अभी तक 40 साल बाद भी वैसा ही है।
इस कर्म में दिग्देवताओं, दिशाओं, चंद्र, सूर्य, वासुदेव तथा गगन (आकाश), इस देवताओं का किसी जलपूतच्च्क्षुर्देवहितं र्ण पात्र में आवाहन करके उनके नाक मंत्रों से पूजन होता है और पूजा के अनन्तर उनसे प्रार्थना की जाती है।
तदनन्तर शंख-घण्टानाद के साथ शांति पाठ करते हुए बालक को घर के बाहर आँगन में जहाँ सूर्य देव का दर्शन हो सके, (only diffused light is permissible) ऐसे स्थान में ले जाकर किसी ताम्र पात्र में सूर्य की स्थापना-प्रतिष्ठा करके, उनका पूजन करना चाहिये। उनकी पूजा अर्चना करके अर्द्ध लाभ प्रदान करके,
हमेशां ध्यान रखें सूर्य को स्वयं भी कभी सीधा न देखें, खास टूर पर सुबह और शाम को लालिमा लिये सूर्य को। सूर्य ग्रहण में तो सूर्य की ओर सीधे कदापि न देखें।
निष्क्रमण के उपांग कर्म ::
भूमि उपवेशन कर्म-भूम्युपवेशन :-
इस कर्म में दिग्देवताओं, दिशाओं, चंद्र, सूर्य, वासुदेव तथा गगन (आकाश), इस देवताओं का किसी जलपूतच्च्क्षुर्देवहितं र्ण पात्र में आवाहन करके उनके नाक मंत्रों से पूजन होता है और पूजा के अनन्तर उनसे प्रार्थना की जाती है।
तदनन्तर शंख-घण्टानाद के साथ शांति पाठ करते हुए बालक को घर के बाहर आँगन में जहाँ सूर्य देव का दर्शन हो सके, (only diffused light is permissible) ऐसे स्थान में ले जाकर किसी ताम्र पात्र में सूर्य की स्थापना-प्रतिष्ठा करके, उनका पूजन करना चाहिये। उनकी पूजा अर्चना करके अर्द्ध लाभ प्रदान करके,
"ॐ तच्च्क्षुर्देवहितं"
मंत्र का पाठ करते हुए बालक को सूर्य का दर्शन कराना चाहिये और ब्राह्मण को दक्षिणा-भोजन आदि कराकर कर्म सम्पन्न करना चाहिये। हमेशां ध्यान रखें सूर्य को स्वयं भी कभी सीधा न देखें, खास टूर पर सुबह और शाम को लालिमा लिये सूर्य को। सूर्य ग्रहण में तो सूर्य की ओर सीधे कदापि न देखें।
निष्क्रमण के उपांग कर्म ::
भूमि उपवेशन कर्म-भूम्युपवेशन :-
पञ्चमे च तथा मासि भूमौ तमुपवेशयेत्।
जन्म के पाँचवें मास में भूमि-उपवेशन कर्म होता है, जिसमें भूमि पूजन करके पहली बार बालक को भूमि का स्पर्श करवाया जाता है। सुविधा की दृष्टि से नामकर्ण संस्कार के दिन भी इस संस्कार को करने की परम्परा भी है।[पारस्कर ग्रह सूत्र 1.17.6]
भूम्युपवेशन कर्म को करने से भूमि माता शिशु की रक्षा करती है और मृत्यु के पश्चात भी माता भूमि उसे अपनी गोद में रखती है। शास्त्रों में पृथ्वी माता की गोद में प्राणान्त को अत्योत्तम कहा गया है। इसीलिये मरणासन्न व्यक्ति को धरती पर लिटा दिया जाता है। ऐसा विश्वास है कि पलंग आदि पर देहान्त से सद्गति नहीं होती।
दोलारोहण-पर्यंकारोहण :- शिशु के लिये नया झूला (हिन्डोला, पर्यंक, दोला, पालना) बनवाया जाता है। पहली बार माता की गोद से पालने में बैठाने का मांगलिक कार्य दोलारोहण कहलाता है। इसे नामकरण के 16 वें अथवा 22 वें दिन करना चाहिये। इसके आलावा अन्य किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में कुलदेवता का पूजन करके, हल्दी, कुमकुम आदि से सुसज्जित डोले में माता, सौभाग्यवती स्त्रियाँ योगशायी भगवान् श्री हरी विष्णु का स्मरण करते हुए मंगल गीत-वाद्यों की ध्वनि के साथ भली-भाँति अलंकृत किये हुए शिशु को नवीन वस्त्रों से आच्छादित करके पर्यंक पर पूर्व की ओर सर करके सुलाती हैं और मांगलिक कार्यों को सम्पन्न करती है।
गौदुग्ध पान :- जन्म के 31 वें दिन अथवा किसी अन्य शुभ दिन और मुहूर्त में कुल देवता का पूजन करने के अनन्तर बालक की माता अथवा कोई सौभाग्य शालिनी स्त्री शंख में गौदुग्ध भरकर धीरे-धीरे बच्चे को पहली बार पिलाती है।
दोलारोहण-पर्यंकारोहण :- शिशु के लिये नया झूला (हिन्डोला, पर्यंक, दोला, पालना) बनवाया जाता है। पहली बार माता की गोद से पालने में बैठाने का मांगलिक कार्य दोलारोहण कहलाता है। इसे नामकरण के 16 वें अथवा 22 वें दिन करना चाहिये। इसके आलावा अन्य किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में कुलदेवता का पूजन करके, हल्दी, कुमकुम आदि से सुसज्जित डोले में माता, सौभाग्यवती स्त्रियाँ योगशायी भगवान् श्री हरी विष्णु का स्मरण करते हुए मंगल गीत-वाद्यों की ध्वनि के साथ भली-भाँति अलंकृत किये हुए शिशु को नवीन वस्त्रों से आच्छादित करके पर्यंक पर पूर्व की ओर सर करके सुलाती हैं और मांगलिक कार्यों को सम्पन्न करती है।
गौदुग्ध पान :- जन्म के 31 वें दिन अथवा किसी अन्य शुभ दिन और मुहूर्त में कुल देवता का पूजन करने के अनन्तर बालक की माता अथवा कोई सौभाग्य शालिनी स्त्री शंख में गौदुग्ध भरकर धीरे-धीरे बच्चे को पहली बार पिलाती है।
"प्रवरं जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम्" [चरक संहिता सूत्र स्थान 27.218]
गाय का दूध स्वादिष्ट, शीतल, मृदु, स्निग्ध, बहल (गाढ़ा), श्लक्ष्ण, पिच्छिल, गुरु, मन्द और प्रसन्न; इन दस गुणों से युक्त रहता है।
"जीवनं बृंहणं सात्म्यं स्नेहनं मानुषं पय:"
माता के दूध में जीवन दायिनी शक्ति होती है, बृहण होता है। यह जन्म से ही बालक और हर व्यक्ति के अनुकूल होता है।[चरक संहिता सूत्र स्थान 27.224]
सूर्यावलोकन :: नामकरण संस्कार सम्पन्न हो जाने के बाद निष्क्रमण संस्कार की सामग्री यथास्थान स्थितकर हाथ में कुशाक्षत, जल लेकर निम्न संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं ममास्य बालस्य करिष्यमाणनिष्क्रमणकर्मणि सर्वारिष्ट निवृत्तये जले दिगीशानां दिशां चन्द्रस्य अर्कस्य वासुदेवस्य गगनस्य च पूर्वांगत्वेन पूजनं करिष्ये।
ऐसा कहकर संकल्प जल छोड़ दें।
दिशाओं तथा दिग्देवता आदि का स्थापन-पूजन :- किसी पवित्र पात्र में जल लेकर सामने रख लें और निम्न मन्त्रों से उस जल में दिगीशादि देवों पर अक्षत छोड़ते हुए उनका आवाहन एवं प्रतिष्ठापन करें :-
ॐ भूर्भुवः स्वः जले डिगीशादिदेवा गगनपर्यन्ता आगच्छन्तु तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु।
पूजन :- तदनन्तर
ॐ दिगीशेभ्यो नमः, ॐ दिग्भ्यो नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ अर्काय नमः, ॐ वासुदेवाय नमः, ॐ गगनाय नमः;
इन नाम मन्त्रों से ध्यान करके इन्हीं नाम मन्त्रों द्वारा गन्धाक्षत, पुष्प आदि उपचारों से जल में उनका पूजन करें।
प्रार्थना :: हाथ में जल लेकर निम्न मन्त्र से देवों से बालक की रक्षा की प्रार्थना करें :-
ॐ चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां दिशां च गगनस्य च।
निक्षेपार्थमिमं दद्मि ते मे रक्षन्तु बालकम्॥
अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवा रात्रावथापि वा।
रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्र पुरोगमा:॥
सूर्य पूजन :: तदनन्तर बालक को सूर्य दर्शन कराने के लिये माता बालक को गोद में लेकर बाहर उस स्थान पर आ जाये जहाँ से सूरदर्शन हो सके। उस समय शंख-घण्टानाद के साथ मंगल वाद्यों की ध्वनि तथा स्वस्ति मंगल पाठ का उच्चारण चलता रहे। तदनन्तर पिता तथा बालक की माता पुत्र को गोद में लेकर यथास्थान शुभ आसन पर बैठ जायें और किसी ताम्र पात्र में जल, गन्धादि छोड़कर उसमें भगवान् सूर्य का आवाहन तथा प्रतिष्ठा करें। तदनन्तर निम्न मन्त्र से हाथ में रक्त पुष्पों तथा अक्षतों द्वारा भगवान् सूर्य का ध्यान करें :-
ॐ पद्मासनः पद्मकरो द्विबाहु: पद्मद्युति: सप्ततुरङ्गवाह:।
दिवाकरो लोकगुरुः किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देवः॥
हाथ में लाल पुष्पाक्षत लेकर "ॐ आदित्याय नमः" इस मंत्र से पुष्पादि जल में छोड़ दें। सूर्य का यथालब्धोपचार पूजन करें और निम्न मंत्र से प्रार्थना करें :-
ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
सूर्यार्घ्य दान :: ताम्र पात्र में फल, पुष्प युक्त जल लेकर सूर्य भगवान् को निम्नलिखित मंत्र से अर्ध्य प्रदान करें :-
एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या ग्रहणार्ध्य दिवाकर॥
ऐशोबोलते हुए अपने स्थान पर चराना ओर ऽर्ध्य: ब्रह्मस्वरूपिणे श्रीसूर्यनारायणाय नमः।
सूर्योदीक्षण विधि :: इसके बाद माता की गोद में स्थित शिशु को पिता अथवा आचार्य निम्नलिखित मंत्र बोलते हुए सूर्य का दर्शन करायें :-
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत: शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरद: शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
सूर्य प्रदक्षिणा :: इसके बाद निम्न मंत्र बोलते हुए अपने स्थान पर ही चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करें :-
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे पदे॥
सूर्य प्रणामाञ्जलि :: हाथ में लाला पुष्प, अक्षत लेकर निम्लिखित मंत्र बोलते हुए भगवान् सूर्य को प्रणाम करें :-
ॐ जपाकुसुमसङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
ध्वांतारिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥
तदनन्तर भूम्युपवेशन कर्म करें।
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए कर्म उन्हें समर्पित करें :-
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णो: सम्पूर्ण स्यादिति श्रुति:॥
बस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञ क्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमुच्युतम्॥
यत्यादपङ्कजस्मरणात् यस्य नामजपादपि।
न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं तं वन्दे सामबमीश्वरम्॥
ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।
ॐ साम्बसदाशिवाय नमः। ॐ साम्बसदाशिवाय नमः।
ॐ साम्बसदाशिवाय नमः।
निष्क्रमण संस्कार सहित नामकरण संस्कार पूरा हुआ।
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा