Sunday, September 29, 2013

HINDU PHILOSOPHY (1) हिंदु दर्शन

HINDU PHILOSOPHY (1)
हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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Video link :: https://youtu.be/YDM0Mp61jLs
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Hinduism a way of life, life style, eternal, ancient for ever, ever since. Its a vast reservoir of knowledge, culture, heritage, ethics, moral, values, virtues. Its never ending flow.
Its just like Maa Ganga-the mighty-holy river, flowing from the mountain Himalay to the planes and then joining the ocean. Thousands & thousands of civilisations emerged over its banks. Several canals are cut from it, to carry waters for irrigation & drinking to distant places. Thousands of drains fall into it carrying dirty water, filth, sewer waters. It has the capability to purify-cleanse itself. It carries hundred of herbs and chemicals from mountains. We immerse bone ashes into, it which absorb smells and several other chemicals. Then oxygen automatically adds into it while flowing.
Hinduism witnessed emergence of several faiths, cults, sects out of it and slowly and gradually loosing steam. It perpetuated and will perpetuate. 
Bhagwan Shri Hari Vishnu an incarnation of the Almighty transferred-forwarded the knowledge of Veds to Bhagwan Brahma Ji the creator, who in turn granted it to Dev Rishi Narad. Dev Raj Indr too acquired it. Maharshi Bhardwaj requested Dev Raj to allow him to learn-grasp Veds. He spent thousands & thousands of divine years but could acquire very little of it. But he turned into a great scientist, engineer & ascetic as a result of it.
Bhagwan Ved Vyas around 5,000-6,000 years ago made effort to simplify Veds and divided them into 4 viz. Rig, Sam, Atharv & Yajur Ved. As a matter of fact vast portion of it remain unrevealed.
Veds are carriers of vast knowledge pertaining to prayers, worship, asceticism, culture, virtues, values morals. 
One after another several doctrines-treatises emerged over Veds in the form of Purans, Upnishads, Vedant, Brahmns, Aranyak, Bhasy etc. etc. It was practice to remember them and transfer to the next generation by the sages, Brahmns.
Intellect, intelligence, knowledge, wisdom, prudence, reasoning and contention are the basic elements of Veds.
Veds describes ::
Karm :- endeavours, goals, targets, deeds,
Gyan :- enlightenment, knowledge,
Bhakti :- devotion, worship, prayers, rituals, religious practices &
Moksh :- salvation, emancipation, freedom from rebirth-reincarnation.
A Hindu practices Varnashram Dharm. He practice Dharm Arth, Kam & Moksh. 
Hindu community act, function, work through division of labour :- Brahman, Kshatriy, Vaeshy and the Shudr.
It undergoes four stages of life :- Brahmchary, Grahasth, Vanprasth and the Sanyas.
One tries to reach the truth-Ultimate through analysis, meditation, reasoning and surrender to the God. He seeks asylum, shelter, protection, refuge under the Almighty. While carrying his duties in the current-present life faithfully-sincerely, a Hindu always tries to improve his next birth through truth, charity-donation, pity, social welfare etc. etc.
He practice control over sense organs, mind, mood, psyche, innerself which is a combination of mind, heart and the soul.
Intuition, God's blessings too play their role. Sometimes divine intervention too help the devotee.
It stresses over equanimity, detachment, relinquishment, rejection of allurements & attachments, bonds-ties. 
One over power the vices, defects, wrong doings, shuns wickedness, undue violence and wretched company.
One practices Yog, concentration in the Almighty, asceticism and righteous, virtuous, pious company to keep him fit & fine, mentally, spiritually, physically.
He reasons out ::
Who am I?!
Where have I come from?!
What is the reason behind my birth?!
What is truth?!
What is nature?! 
Who is controlling the universe?! 
Is that controlling power God-the Almighty?!
What is auspicious-what is inauspicious, right-wrong, true-false, good-bad, piousness-vices.
The answer to these and several other questions comes from Shad Darshan-six fold-facet Hindu Philosophy.
Time & again relinquishes, enlightened people-sages like Shankrachary, Gorakh Nath etc. appear and guide us.
The gist is that he Almighty is one. He is both with & without form.
He had infinite incarnations earlier and will incarnations later as well.
Hinduism guides, motivates and ensure that one will definitely attain Salvation-emancipation.
ब्रह्मा जी के प्राकट्य के साथ उन्हें भगवान् श्री हरी विष्णु ने वेदों का उपदेश दिया। यह ज्ञान गँगा नारद आदि ऋषियों के माध्यम से एक कल्प से दूसरे कल्प, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरंतर अनवरत चलती चली आ रही है। समय काल के अनुरूप मनीषियों ने पुराण, उपनिषद आदि की रचना जन कल्याण के लिए की। हर ग्रन्थ के भाष्य, विवेचनाएँ लिखी गईं। मनीषियों विद्वानों के द्वारा तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति तभी से चली आ रही है और विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञा मूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्क मूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृत कार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। ज्ञान का उपयोग लक्ष्य निर्धारण और अर्जन-धनोपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार मोक्ष रहा है।
प्रज्ञा (बुद्धि, विवेक, ज्ञान, समझ, Intellect, Intelligence, Knowledge, Understanding, Wisdom, Prudence) मूलक और तर्क-मूलक (reasoning, logic, argument, contention) प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्म ज्ञान-परमात्म तत्व, परमात्म ज्ञान, तत्त्व ज्ञान का आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का संतुलित उपयोग-प्रयोग आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभा मूलक वेदान्त में हुआ। प्रज्ञा-ज्ञान वह चैतसिक प्रकाश है, जिसके द्वारा किसी वस्तु के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है।
मनीषियों ने कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथ का उपदेश मनुष्य के कल्याण हेतु किया, ताकि उसका कल्मष दूर करके उसे पवित्र, नित्य, शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर उसका आध्यात्मिक विकास किया जा सके। यह पतित पावनी ज्ञान की धारा दर्शन कहलाती है। 
Philosophy is a combination of two words :- Philla (फिलास, प्रेम), love, one or ones attracted to or living or growing by preference; Sophia (सोफिया, ज्ञान) wisdom.
दर्शन ::  दर्शन शब्द दृश् धातु से बना है, जिसका अर्थ है, जिसके द्वारा देखा जाए। भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है, जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। भारत का दार्शनिक केवल तत्व की बौधिक व्याख्या से ही सन्तुष्ट नहीं हो पाता, बल्कि वह तत्व की अनुभूति पाना चाहता है। 
मनुष्य का दृष्टिकोण क्या है, कैसे है, किसलिए है, किस कारण है, क्यों है, किसके लिए है, इसके परिणाम क्या होंगे? इन सब प्रश्नों का समाधान ढूँढता है, दर्शन शास्त्र। यह व्यक्ति के मत, राय का निर्धारण भी करता है।  
आचार्य पाणिनी ने धात्वर्थ में प्रेक्षण शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, यथा :- न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा आदि-आदि।

दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द शासु अनुशिष्टौ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।
दर्शन की प्रकृति :: दर्शन एक जीवन दृष्टी पद्धति शैली है, जीवन, जगत और आध्यात्म को जानने की इच्छा। यह वह विद्या है जिससे तत्व ज्ञान-परमात्म तत्व की प्राप्ति हो सके। यह (1). ऐन्द्रिक (sensual) और (2). अनेंद्रिक (unsensual) दर्शन एक जीवन दृष्टी है, जीवन, जगत और आध्यात्म को जानने की। 
अनैन्द्रीय-अनेंद्रिकअनुभूति ही आध्यत्मिक अनुभूति है और इसके द्वारा ही तत्व का साक्षात्कार संभव है। आध्यत्मिक अनुभूति (intuitive experience) बौधिक ज्ञान से उच्च है। बौधिक ज्ञान में ज्ञेय और ज्ञाता के बीच द्वैत विद्यमान रहता है, परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञेय और ज्ञाता के बीच का भेद नष्ट हो जाता है।
एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। 
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥
हे पार्थ! यह सम बुद्धि तेरे लिए पहले साँख्य-ज्ञान योग में कही गई और अब इसको कर्म योग के विषय में सुन-जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.39]
O Parth! The concept of equanimity (balanced state of mind) was discussed in Sankhy-Gyan Yog, now listen to (learn, understand) the same concept pertaining to Karm Yog. 
देह-देही का ज्ञान विवेक शील प्राणी-मनुष्य में समता स्वतः स्पष्ट कर देता है। देह में राग, मोह, अनुराग रहने से ही विषमता उत्पन्न होती है। राग-द्वेष होने से ही पाप लगता है। समबुद्धि होने से पाप नहीं लगता। पक्षपात-दुराग्रह नष्ट हो जाते हैं। समबुद्धि होने से कर्म बन्धन कारी नहीं होंगे। निस्वार्थ भाव से लोक मर्यादा कायम रखने के लिये-लोगों को उन्माद से हटाकर सन्मार्ग में लगाने से समता सरलता से प्राप्त हो जाती है। कर्मयोगी बन्धन से सुगमता पूर्वक मुक्त हो जाता है। 
शरीर और शरीरी के भेद को जानकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करना साँख्य और कर्तव्य और अकर्तव्य को समझ कर त्याग और कर्तव्य का निर्वाह कर्म योग है। श्लोक (2.31-37) धर्म शास्त्र और श्लोक (2.39-53) मोक्ष शास्त्र की व्याख्या करते हैं। धर्म से लौकिक और परमार्थिक-दोनों तरह की उन्नति होती है। धर्म और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्तव्य पालन से योग और योग साधना से तत्व ज्ञान स्वतः हो जाता है जो कि कर्म और ज्ञान योग का सत्व है।  
Knowledge-understanding of the body-physique & the soul, enlightens the prudent automatically. Attachment with the body-worldly affairs create differentiation. Attachments-bonds evolve sins. The moment one attain equanimity, he gets rid of sins. Equanimity abolishes favouritism, excessive stubbornness, misguided zeal. Equanimity breaks the bonds, illusion, ignorance, attachments, selfishness. Equanimity is attained easily-quickly if one make efforts to bring the misguided-frenzied to the righteous, virtuous, pious path-track, without motive (selfishness, personal gains). The Karm Yogi is detached-relinquished with ease.
The understanding of the difference of physique and the soul is Gyan-Sankhy Yog, while the understanding of duties-deeds and the undesirable acts (foul motives, deeds) and rejecting the sinful and observing of the Dharm is Karm Yog. Shlok-Verses (2.31-37) explains the Dharm Shastr-religiosity & (2.39-53) describes the Moksh Shastr-Salvation. Dharm promotes worldly endeavours and efforts for Salvation promotes attainment of the Ultimate. Dharm and dutifulness are the two sides of the same coin. Completion of own duties-Varnashram Dharm, leads to Yog & the practice of Yog awards the gist, nectar, elixir, basic truth, theme, central idea automatically, which is the back bone of of Karm & Gyan Yog.
Criminality is sin which turns into diseases, failures, frustration, turmoil in next births & in current birth as well. One who is devoted to his righteous-virtuous job honestly becomes entitled to Salvation automatically, even if he do not get time for regular prayers. Its sufficient to remember the Almighty at all points of time. One should discharge his duties properly with devotion without being bribed. Bribes always result into pains, anguish, turmoil.
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्। 
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥
यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और युक्ति-युक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।[श्रीमद्भगवद्गीता13.4]  
The sages, seers, ancient scholars, authors have separately described the gist of creation and the creator (Soul & the Almighty) in various ways-forms in great detail, in the Vedic hymns and also in very logical, conclusive and convincing verses of Brahm Sutr (formulae discussing step by step in very-very precise manner) & other other scriptures. 
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान-भेद सबसे भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा जी को और फिर वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा अन्यानेक ऋषियों-मुनियों के द्वारा अपने-अपने शास्त्र-स्मृतियों सहित वेदों (ऋक्, यजुः, साम और अथर्व) की संहिता और ब्राह्मणों के भागों के मन्त्रों के अन्तर्गत सम्पूर्ण उपनिषद्, शास्त्रों, स्मृतियों पुराणों और ग्रन्थों में जड़-चेतन, सत्-असत्, शरीर-शरीरी, देह-देही, नित्य-अनित्य आदि शब्दों में बहुत विस्तार और बेहद युक्ति-युक्त तरीके से समझाया है। 
Bhagwan Vishnu first passed on the knowledge of the difference of Kshetr-the creation & Kshetragy-the creator to Brahma Ji, who in turn transferred in depth knowledge to the sages, seers, virtuous scholars, philosophers through the treatises, verses, hymns of the 4 Veds (Rik, Yajur, Sam and Atharv), Brahmans (scriptures sub dividing and elaborating the intricate details step by step in order to make the meaning, absolutely clear; in the form of formulae-various permutations & combinations), Upnishads, Purans memories-Smratis and various other sub titles from time to time, explaining the intricacies of living & non living, pious-virtuous & vices, body & soul, embodied & without body, existent & non existent in very logical and orderly sequences. 
ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्॥ 
योग से प्राप्त बुध्दि ऋतंभरा (सदा एक रस रहनेवाली सात्त्विक बुद्धि) है और इन्द्रियों से प्रत्यक्ष तथा अनुमान से होने वाला ज्ञान सामान्य बुध्दि से भिन्न विषय-अर्थ वाला हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि जो ज्ञान सामान्य बुध्दि से प्राप्त होता है, वह भिन्न है और ऋतंभरा योग से सिद्ध हुई बुध्दि से प्राप्त ज्ञान भिन्न अर्थ वाला हो जाता है। इससे ही अध्यात्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
मनुष्य की बौद्धिकता उसे अन्यानेक प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए बाध्य करती है यथा :- विश्व का स्वरूप क्या है? इसकी उत्पत्ति किस प्रकार और क्यों हुई? विश्व का कोई प्रयोजन है अथवा यह प्रयोजनहीन है? आत्मा क्या है? जीव क्या है? ईश्वर है अथवा नहीं? ईश्वर का स्वरूप क्या है? ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण क्या है? ज्ञान का साधन क्या है? सत्य ज्ञान का स्वरूप और सीमाए क्या है? शुभ और अशुभ क्या है? उचित और अनुचित क्या है? नैतिक निर्णय का विषय क्या है? व्यक्ति और समाज में क्या सम्बन्ध है? इत्यादि। दर्शन इन प्रश्नों का युक्ति-युक्त उत्तर देने का प्रयास है। इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भावना या विश्वास का सहारा नहीं लिया गया है, अपितु बुद्धि का प्रयोग किया गया है। 
भारत जगत गुरु है। संस्कृति, इतिहास इसके साक्षी हैं। दर्शन शस्त्र मानव मूल्यों का निर्धारण-संचालन करता है। यह प्रेरणा का स्त्रोत्र भी है। वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण में यह नितान्त-अत्यावश्यक है। इसकी उपयोगिता बहु आयामी है।आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शन-आदर्शमानकों के अभाव में असंभव है। प्रमाण और तर्क सशोधन, मनुष्य के जीवन में मार्ग दर्शन में सहायक हैं। 
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। 
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए, मैं तुमसे वह कर्म तत्व कहूँगा जिसे जानकर तुम अशुभ (कर्म, संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.16]
One, the wise, enlightened too, get deluded in understanding the nature of action (work, function, endeavour, deed) and inaction? Therefore, the Almighty decided to explain-elaborate the gist of action, which liberates one  from the inauspicious (bondage from actions).
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि केवल शरीर ही नहीं अपितु मन, वाणी के द्वारा होने वाली क्रियाएँ (विचार) भी कर्म हैं। कर्म का भाव जैसा होगा वैसा ही स्वरूप वह ले लेगा जायेगा :- सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, यद्यपि देखने में वे  एक से ही लगते हैं। उपासना, साधना सात्विक है, परन्तु यदि उसे कामना पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाये, तो वही राजसिक तथा किसी के नाश के लिए किया जाये तो वही तामसिक हो जाती है। प्रवृति अथवा निवृति मार्ग दोनों ही मुक्ति के साधन बन जाते हैं। वही कर्म, अकर्म हो जाता है, यदि कर्ता में फलेच्छा (आसक्ति, राग, द्वेष, ममता) नहीं है, यह निर्लिप्तता है। इस बात को समझना कि ये दोनों ही मुक्ति के मार्ग हैं, कर्म-तत्व को जानना है। कर्म जीव को बाँधता है और अकर्म (पारमार्थिक) मुक्ति दाता है। सात्विक त्याग में कर्म करना भी अकर्म है। कर्म और अकर्म की विभाजन रेखा इतनी बारीक-महीन है कि शास्त्रों का ज्ञाता, अच्छे से अच्छा अनुभवी और तत्वज्ञ-विद्वान भी मोहित हो जाता है। कर्मयोग और त्याग में विवेक की प्रधानता से ये पारमार्थिक कर्म ही किये जाते हैं। कर्म तत्व के इस रहस्य को समझने के बाद मनुष्य भव सागर के पार उतर जाता है।
Bhagwan Shri Krashn explained to Arjun that its not only the body which perform, but the brain (thoughts, ideas and speech) too works. It is the motive (idea, concept) behind actions, which makes them Satvik-pure, Rajsik-desirous & Tamsik (contaminated, stained, slurred, polluted) by the desire of harming some one. The prayers too turn to Satvik, Rajsik or Tamsik according to the thinking of the individual. Intentional or otherwise, both type of deeds turn into zero, leading one to freedom from reincarnations, if there is no desire, attachment, allurement, enmity. Both of these are modes of Liberation if intentions are pure for the sake of improving the society-helping others. The line drawn between Karm-work and Akarm-no work is so fine that, it often confuses the most intelligent (enlightened, wise) knowing the gist, understanding of scriptures, Varnashram Dharm. Karm Yog and renunciation associated with prudence becomes devotional for the society as a whole. The purity of theme (gist, central idea) behind the thoughts is sufficient to sail through the ocean, called living world.
Its the intention which makes the motive Satvik, Rajsik or Tamsik. Good intention is Satvik and bad intention is Tamsik.
संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है? इस विषय में विद्वान एक मत नहीं हैं। यहाँ भी परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति में दर्शन सहायक है। 
दर्शन द्वारा विषयों को संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक (अपरा, भौतिक, जड़, निर्जीव, अचेतन) और अलौकिक (परा, आध्यात्मिक, चेतन)। यह ज्ञात से अज्ञात, जड़ से चेतन, प्रकृति से परमात्मा की ओर ले जाने में सहायक है। 
वेद दर्शन का मूल हैं। वेद धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल-प्रेरणा स्रोत हैं। कोई भी धार्मिक आयोजन, अनुष्ठान, सांस्कृतिक कृत्य वेद-मंत्रों का गायन के बगैर अधूरा है। दर्शन का आधार और प्रमाण भी वेद ही हैं। वेदों में दर्शन के अतिरिक्त जीवन शैली, काव्य, चिकित्सा, ज्योतिष, काव्य, ज्ञान-विज्ञान का समावेश है। 
वेद (विज्ञ अर्थात ज्ञान) मनुष्य के दार्शनिक विचारों का मानव-भाषा में सबसे पहला वर्णन हैं। वे परम सत्य ईश्वर की वाणी, आस्तिक दर्शन के प्रमाण हैं। वेदों का विस्तार-प्राकट्य उपनिषदों में प्राप्त है। उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है श्रद्धा युक्त निकट बैठना (उप + नि + षद) उपनिषद में गुरु और शिष्य से सम्बंधित वार्तालाप हैं। उपनिषद वेदों का ही निचोड़ है इसलिए इन्हें वेदान्त (वेद + अंत) भी कहा जाता है। 
वैदिक दर्शन में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। गीता का कर्मवाद भी इनके समकालीन है। षडदर्शनों को आस्तिक दर्शन कहा जाता है। वे वेद की सत्ता को मानते हैं। हिन्दु दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के आस्तिक दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ भी विद्यमान रहीं हैं।
वेद को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि आध्यात्मिक अनुभव से इन सब विषयों में शुष्क तर्क की अपेक्षा अधिक प्रकाश मिलता है। वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को संहिता कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है।
वेद मंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तर कालीन दर्शनों के समान सन्यास प्रधान नहीं है। इनमें जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं। ये संगीतमय लोक काव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यक ग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्र संहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। आत्मा विषय जगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों से परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। 
सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेद मूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैत भाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टि वाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को वेदांत भी कहते हैं।
उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है।
सन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है।  गीता का कर्म योग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
मीमांसा :-  कर्म कांड और वेदांत वेद की 2 शाखाएँ हैं। संहिता और ब्राह्मण में कर्म कांड का प्रतिपादन किया गया है तथा उपनिषद् एवं आरण्यक में ज्ञान का। मीमांसा दर्शन के आद्याचार्य जैमिनि ने इस कर्मकाण्ड को सिद्धांत बद्ध किया है। प्रतिपादित कर्मों के द्वारा ही मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है। 
कर्म :- ये तीन प्रकार के हैं :- काम्य, निषिद्ध और नित्य। बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। सभी कर्मों के परिणाम विधाता तय करता है जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल उसके जन्म-जन्मांतरों के कर्मों के अनुरूप प्रारब्ध के रूप में प्रकट करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही शुभ-अशुभ, रोग-वैराग आदि के रूप में प्रकट होते है और फल के उपरांत नष्ट हो जाते हैं। 
भारत जगत गुरु है। संस्कृति, इतिहास इसके साक्षी हैं। दर्शन शस्त्र मानव मूल्यों का निर्धारण-संचालन करता है। यह प्रेरणा का स्त्रोत्र भी है। वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण में यह नितान्त-अत्यावश्यक है। इसकी उपयोगिता बहु आयामी है। आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शन-आदर्शमानकों के अभाव में असंभव है। प्रमाण और तर्क सशोधन, मनुष्य के जीवन में मार्ग दर्शन में सहायक हैं। शंकराचार्य ने हिन्दु, बौद्ध तथा जैन मत के लगभग 80 प्रधान सम्प्रदायों के साथ शास्त्रार्थ किया। हिन्दु धर्मावलम्बी लोग यथार्थ वैदिक धर्म से विच्युत होकर अनेक संकीर्ण मतवादों में विभक्त हो गए थे। आचार्य शंकर ने वेद की प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा की और हिन्दु धर्म के सभी मतवादों का संस्कार कर जनसाधारण को वेदानुगामी बनाया। वेद का प्रचार उनका अन्यत्र प्रधान अवदान है। 
शंकराचार्य को वेदान्त के अद्वैतवाद सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।उन्होंने अनेक शास्त्रों का भाष्य लिखा। इनके अद्वैतवाद के अनुसार संसार का अन्तिम सत्य ‘दो नहीं’ एक होता है। इसी का नाम ब्रह्म है। 
"एकमेव हि परमार्थसत्यं ब्रह्म"
ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्य है। यही एक सत्य है शेष सभी असत्य है। 
Dharm means duty, carrying out of social obligations & has nothing to do with any ideology. Its purely a matter of faith. The Brahm is Par Brahm Parmeshwar-the Almighty. Its truth, virtues-piousity, righteousness, honesty. Religion has nothing to with opinions, ideology, philosophy. Its unbiased and beneficial to the devotee. It does not find grievances-faults with one who does not observe religious practices. It has no complaint against the atheist as well or one who does not believe religion. It does not compel any one to join. If some one forces others to discard it he commits a crime-sin.
GOD IS ONE एकेश्वर :: The Almighty is one. Hinduism firmly believe that there is only one God-The Almighty. His incarnations are divine & number less. He appeared to help the humans & deities. The learned-enlightened do not find any difference of opinion, discrepancy, confusion with it. Variations are observed due to regional variations. However, there are deities and demigods who perform specific functions. This is divine division of labour. The Hindu has firm faith in the existence of demigods, deities which are 33,00,00,000 in number. Each and every deity has to perform its own duty. The Almighty is Supreme. He guides each and every activity, process, endeavour. The universe has Trinity of Gods, called Brahma, Vishnu and Mahesh. They are not the only one forming trinity. Infinite galaxies have infinite numbers of universes, each having this trinity. However, the Ultimate is Brahm-the Almighty who takes care of all abodes. 
Muslims too advocate unilateralism of God.
There is only one religion which is eternal-since ever, for ever, called Sanatan Dharm or Hindu Dharm. This is ancient beyond the limits of time and physical boundaries. 
Hindus follow various routes to assimilate in the Almighty, like Karm Yog, Gyan Yog, Bhakti Yog, Yog, asceticism, equanimity, social welfare, prayers, worship, fasts, pilgrimages etc..
Hindu knows that there are various abodes other than this earth which are inhabited by divine and physical-mortal beings (aliens).
Hindu has firm faith in life after death, reincarnation, impact of deeds, truth & virtues.
A Hindu finds the presence of God in each and every species and commodity.
धर्म का किसी तरह की विचारधारा से कोई भी संबंध नहीं है, बल्कि सिर्फ और सिर्फ ब्रह्म ज्ञान से संबंध है। ब्रह्म ज्ञान के अनुसार प्राणी मात्र सत्य है। सत्य का अर्थ यह भी और वह भी दोनों ही सत्य है। सत् और तत् मिलकर बना है सत्य।
अनन्त काल की लंबी परंपरा के कारण हिंदु धर्म में अनेक मतान्तर (difference of opinions, discrepancies, confusions) हो सकते हैं। इनका समाधान निकलता है, शास्त्रार्थ से। शास्त्रार्थ वाद-विवाद नहीं है; अपितु प्रमाण, युक्ति, सुझावों का समावेश है। समय, काल, देश-स्थान के अनुरूप मर्यादाएँ, मान्यताएँ बदलती रहती हैं, रीति-रिवाज बदलते रहते हैं मगर धर्म का स्वरूप अपरिवर्तनीय है। 
अनेकानेक पूजा-पाठ, प्रार्थना, पद्धतियाँ, तीज-त्यौहार हैं, मगर उन्हें मानने की कोई बाध्यता नहीं है। 
गाय, नाग, बंदर, बैल आदि को पवित्र समझकर उनकी उपयोगिता के अनुरूप पूजा करते हैं। यह पूजा प्रतीकात्मक है। 
ग्रह नक्षत्रों की पूजा ज्योतिष, कर्म फल-दोष को दूर करने के लिए की जाती है। ग्रह-नक्षत्र केवल पिण्ड मात्र नहीं हैं, उनका दैवीय रूप भी है। वे हमेशा प्राणी की हर तरह से समुचित सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। 
GUIDING PRINCIPLES ::
 A Hindu has firm faith in scriptures, epics & history. Veds constitutes the guiding principles of Hindu society, faith, culture. way of living. Unfortunately the Veds which are available these days are edited versions, which are just one sixth of the original text. Interpretations of Veds are different due to personal greed-egoistic attitude. Such interpretation are not binding over others. Saints, scholars, philosophers, enlightened sit together to sort out the ambiguities-misinterpretations. One can attain Moksh (Salvation) through detachment, breaking of bonds, ties, equanimity, discarding desires, allurements. Relinquishment from the world (freedom from sorrows, pain, grief), God, Soul & Prakrati-Nature are the eternal components-causes of the creation of the universe. Non existence of existent objects & existence of non existent objects is impossible. 

    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

Wednesday, September 4, 2013

PHILOSOPHY दर्शन

PHILOSOPHY 
दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
The civilised society, living world follows some life styles, principles, tenets, rules-regulations, principles-laws, way of living and means of livelihood, which are conceptualised as Philosophy. It is the study of the fundamental nature of knowledge, reality and existence, especially when considered as an academic discipline.
The barbarians, people living in far away places in deep woods, native tribes are generally cut off from the developed world. Generally, one do not expect them to have any morals, virtues, cultures, values, principles. Still traditions, rituals, mores constitute their interaction within the group or the other tribes living around.
In other words philosophy is a theory or attitude that acts as a guiding principle for human behaviour, interaction in the society.
Various terms like beliefs, credo, faith, convictions, ideology, ideas, thinking, notions, theories, doctrine, tenets, values, principles, ethics, attitude, line, view, viewpoint, outlook, world view, school of thought etc. etc. are used to describe it. Normally, they are called ISM. Its described as faith like Jainism Buddhism, Sikhism as well.
Sect may be termed as another term for a group of people following certain faith, practices.
Every philosophy has one or the other value attached with it.
IDEALISM आदर्शवाद :: It deals with the highest standards of morals, values in life. One is supposed to learn and accept to follow the great saints, preachers who serve the community without any desire. They do not need any thing in return, appreciation, honour, name fame or wealth. Their motive is selfless service of the man kind-humanity. A Hindu considers Bhagwan Shri Ram as an ideal. Such people are termed as Purushottm-greatest amongest the humans. 
It deals with high moral values, ethics, standards like truthfulness, virtuousness, piousity, righteousness, honesty, austerities, donations, welfare of others, sacrifices.
The idealist always crave for salvation, liberation, assimilation in the Almighty so that reincarnation-rebirth is not there.
REALISM :: It was not a coherent school of thought, in the study of international relations which emerged during the mid 20th century. It stressed over the perennial role of power and self interest in determining state behaviour, which was inspired by wide variety of sources and offered competing visions of the self, the state and the military power in world politics. There is an attempt to offer most accurate explanation of state behaviour and a set of policy prescriptions (notably the balance of power between states) for ameliorating the inherent destabilising elements of international affairs & focuses on abiding patterns of interaction in an international system lacking a centralised political authority. The condition of anarchy exists behind the logic of international politics, which often differ from that of domestic politics, being regulated by a sovereign power. Its followers are generally pessimistic about the possibility of radical systemic reform. It was adopted  by Americans & the British, who do not mind interfering with the sovereignty of state world over. The practice still continues and countries like Russia, China, Pakistan are not far behind.
It includes elements of pragmatism, practicality, facts, common sense, level headedness, clear sightedness, authenticity, fidelity, verisimilitude, truthfulness, faithfulness, naturalism.
One should accept the existence of others and respect it. A state of neutrality is essential for growth.
What is real today may not be true tomorrow! The world appears to be a reality at this moment but the next moment it be wiped off, completely. Politics never survives without diplomacy, shrewdness sometimes cunningness like the Britishers, as well.
There is always room for cordial relations, negotiations, mutual understanding, compromise, cooperation. Those who understand reality are always willing to adjust with others.
PRAGMATISM :: It originated in the United States around 1,870. Usually it considers the practical effects of the objects of one's conception, as an instrument or tool for prediction, problem solving and action and rejects the idea that the function of thought is to describe, represent or mirror reality. It include logic of science, fixation of belief and as a tool to make ideas clear. Knowledge, language, concepts, meaning, belief and science are all best viewed in terms of their practical uses and successes in human experiences. It focuses on a changing universe rather than an unchanging one as the Idealists & the Realists.
One is pragmatic if he realises the worth of a good or an idea and put it to its best possible use.
MATERIALISM :: It reflects the tendency to consider material possessions and physical comfort as more important than spiritual values. One just believe in eat, drink and be merry. Ethics, values, religion are not important for the materialist. This faith generally do not care for life after death or rebirth. The impact of deeds may be meaningless for him.
CAPITALISM :: Unless-until one has right to own property, material goods, worldly possessions, growth is not possible. Money is essential for this. It involves banking system, investors, general public, buyers and sellers, factories, market places and the agriculture-farming community. It involves economic theories, financial instruments, brokers etc. None of the theories is capable of defining consumer behaviour, since it discards mood, psychology human behaviour. Corruption, greed, boundaries, internal interests, colonial interests are other ingredients which affect capitalism. Political stability is essential.
COMMUNISM :: It advocated the state ownership of all property. In reality it opposed capitalism. Its roots lies in India, where Marx misunderstood the title deeds of property of farmers, cultivators to be owning to the kingdom. This system has failed all over the world. It led to the brutal murder of billions of innocent people, acquisition of their property, low moral values, corruption and amassing huge wealth by the dominant people in power. Its still present for the namesake in Russia, North Korea & China. In China and Russia the person in presidential posts wish to die as president and dominate circles of power. There is no freedom of speech or writing in China and Korea. As soon as one open his mouth against the people in power or write some thing them, he meet  a torturous end. Its various forms include Maoism, Marxism, Leninism, socialism. In India it exists as Samajwadi Parties, Communists, the heads of which have mercilessly looted state and private properties of innocent people.
CONFUCIANISM :: Its also known as Ruism, is a tradition, a philosophy, a religion, a humanistic or rationalistic religion, a way of governing, or simply a way of life. Chinese philosopher Confucius propounded this school of thought. It was rather a reaction to Buddhism and Taoism (traditional nature worship). It stresses over family and social harmony, rather than on an otherworldly source of spiritual values. It has something in common with humanistic behaviour of Brahmns-Hinduism (piousness, absolute faith in God, non accumulation, subsistence), rituals, temples prevalent in India in ancient times. 
SOLIPSISM :: It revolves around the idea that there is nothing one can confirm except his own existence. If one think about the brain’s capacity for hallucination and just good for dreaming, it’s not that hard to imagine outside manipulation being possible as well.
NEO HINDUISM :: It do not recognise the power of any one to expel some one from Hinduism. It permits followers of all faith to worship God just like the devout Hindus. It grants them rights to enter the temples, following certain norms laid down for purity before approaching the idols like bathing, changing cloths, removing shoes, cleaning mouth and washing hands etc. It allows the converts (Muslims & Christians) to rejoin the main stream. It do not press any one to pray before the idols. One may remember the God while travelling or sitting alone. One may pray before all deities, a single deity. There is no compulsion over reading scriptures or listening to the sermons, lectures, lessons pertaining to the God. Just chanting Om, Ram-Ram, Hare Ram Hare Krashn, Hey Ram, Om Namh Shivay is sufficient. 
OTHER CULTS-SECTS :: Ableism, Absolutism, Absurdism, Acquiescence, Activism, Actual Idealism, Actualism, Advaet Vedant, Aesthetic Realism, Aesthetics, African philosophy, Agential realism, Agnosticism, Agnotology, Altruism, Amorfati, American philosophy, Animism, Anti imperialism, Anti-psychiatry, Antinatalism, Anti intellectualism, Anti realism, Anti reductionism, Analytic philosophy, Anarchism, Ancient philosophy, Anthropocentrism, Anomalous monism, Applied ethics, Aristotelianism, Asceticism, Atavism, Atheism, Authoritarianism, Autodidacticism, Averroism, Avicennism, Axiology, Bathism, Bahai's teachings, Behaviourism, Biblical literalism, Bioconservatism, Bioethics, Biolibertarianism, Biosophy, Buddhist philosophy, Bushido, Business ethics, Calvinism, Capitalism, Cartesianism, Catechism, Categorical imperative, Centrism, Chaos theory, Charvak, Chauvinism, Chinese naturalism, Chinese philosophy, Christian ecology, Christian existentialism, Christian humanism, Christian philosophy, 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