अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
उत्तराखण्ड में स्थित मोक्ष दायक हरिद्वार, विश्व के प्राचीनतम, सात पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से भी जाना जाता है। यह समुद्र से 3,139 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और यहीं पर अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से 253 किमी की यात्रा करके माँ गंगा हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती हैं। इसीलिए हरिद्वार को गंगाद्वार के नाम से भी जाना जाता है।जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (भगवान् श्री हरी विष्णु) का द्वार" है।
हरिद्वार एक रमणीक स्थल है। पुराणों में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है :-
सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः॥
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः॥
अर्थात् गँगा सर्वत्र तो सुलभ है, परन्तु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहाँ शरीर त्याग करते हैं, उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं।
मोहनी अवतार में समुद्र मंथन के पश्चात जब भगवान् श्री हरी विष्णु के वाहन गरुड़ जी, अमृत कलश लेकर जा रहे थे, तभी अमृत की कुछ बूँदें यहाँ छलक कर गिर गईं। तभी से उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग में कुंभ, अर्ध कुम्भ और महाकुम्भ का आयोजन होता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहाँ इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं।
हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में 28 दिसम्बर 1,988 को अस्तित्व में आया। 24 सितंबर 1,998 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, 1,998 को पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी भारतीय संघीय विधान, उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2,000 पारित किया और इस प्रकार 9 नवम्बर 2,000 को हरिद्वार भारतीय गणराज्य के 27 वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया।
धार्मिक स्थल के अतिरिक्त यह एक पर्यटन स्थल और एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र भी है।
भगवान् श्री हरी विष्णु के अवतार कपिल मुनि के नाम पर इसे कपिला भी कहा जाता है। यहाँ उनका तपोवन था।सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र, महाराज भगीरथ (भगवान् श्री राम के एक पूर्वज), माँ गँगा को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् 10,000 सगर पुत्रों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिये पृथ्वी पर लाये।
पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण प्रसंग में हरिद्वार का वर्णन सर्वश्रेष्ठ तीर्थ के रूप में किया गया है।
हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा।
तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्॥
तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः।
प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः॥
तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्।
कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा॥
यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला।
एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्॥
उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्।
अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च॥
भगवान् श्री हरी विष्णु के चरणों से प्रकट हुई माँ गँगा जब हरिद्वार में आयीं, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ, श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य इस तीर्थ में स्नान तथा भगवान् श्री हरी विष्णु के दर्शन करके उनकी परिक्रमा करते हैं, वे कभी दुःख के भागी नहीं बनते। यह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। यहाँ अतीव रमणीय तथा निर्मल गँगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं। हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करते हैँ।
महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद ने भीष्म-पुलस्त्य संवाद के रूप में, युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में वर्णन करते हुए गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है।
स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः।
तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः॥
पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्॥
सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्।
देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते॥
ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।
अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति॥
गंगाद्वार (हरिद्वार) स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीक यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है।
हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण मिले हैं उनमें कुछ महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा पर्याप्त प्राचीन स्थल माने जाते हैं। उसके पश्चात सवाई राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि भी बतायी जाती है, वर्तमान हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के बीचोंबीच स्थित है। यह छतरी निर्मित ऐतिहासिक भवनों में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। इसके बाद इसकी मरम्मत वगैरह होती रही है। उसके बाद से विगत लगभग तीन-साढ़े तीन सौ वर्षों से यहां गंगा के किनारे मठ-मंदिर, धर्मशाला और कुछ राजभवनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। वर्तमान में हर की पैड़ी विस्तार योजना के अंतर्गत जम्मू और पुंछ हाउस और आनंद भवन तोड़ दिए गए हैं। उनके स्थान पर घाट और प्लेटफार्म विस्तृत कर बनाये गये हैं। इस प्रकार हरिद्वार में नगर-निर्माण की प्रक्रिया आज से प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई; किंतु तीर्थ के रूप में यह अत्यंत प्राचीन स्थल है। पहले यहाँ पर पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते थे अथवा स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करते थे तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास निकट के कस्बों कनखल, ज्वालापुर इत्यादि में थे।
यहाँ का प्रसिद्ध स्थान 'हर की पैड़ी' है जहाँ गंगा का मंदिर भी है। हर की पैड़ी पर लाखों यात्री स्नान करते हैं और यहाँ का पवित्र गंगा जल देश के प्राय: सभी स्थानो में यात्रियों द्वारा ले जाया जाता है। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री इकट्ठे होते हैं। प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं तब यहां कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला भी लगता है। इनमें कई लाख यात्री इकट्ठे होते और गंगा में स्नान करते हैं। यहाँ अनेक मंदिर और देवस्थल हैं। माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। संभवत: यह 10 वीं शताब्दी का बना होगा।[इस मंदिर में माया देवी की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के तीन मस्तक और चार हाथ हैं।
लोगों का विश्वास है कि यहाँ मरनेवाला प्राणी परमपद पाता है और स्नान से जन्म-जन्मांतर का पाप कट जाता है और परलोक में हरिपद की प्राप्ति होती है।
हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शन प्रस्तुत करता है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री)। इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं, हर अर्थात् शिव (केदारनाथ) और हरि अर्थात् विष्णु (बद्रीनाथ) तक जाने का द्वार।
प्रमुख दर्शनीय धार्मिक स्थल :: अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पाँच तीर्थों की विशेष महिमा बतायी गयी है:-
गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते।
तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत॥
अर्थात् गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी,अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है।
हर की पौड़ी :: पैड़ी का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया। यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है। सर्वाधिक दर्शनीय और महत्वपूर्ण तो यहाँ गंगा की धारा ही है। 'हर की पैड़ी' के पास जो गंगा की धारा है वह कृत्रिम रूप से मुख्यधारा से निकाली गयी धारा है और उस धारा से भी एक छोटी धारा निकालकर ब्रह्म कुंड में ले जायी गयी है। इसी में अधिकांश लोग स्नान करते हैं। गंगा की वास्तविक मुख्यधारा नील पर्वत के पास से बहती है। 'हर की पैड़ी' से चंडी देवी मंदिर की ओर जाते हुए ललतारो पुल से आगे बढ़ने पर गँगा की यह वास्तविक मुख्य धारा अपनी प्राकृतिक छटा के साथ द्रष्टव्य है। बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आए पत्थरों के असंख्य टुकड़े यहाँ दर्शनीय है। इस धारा का नाम नील पर्वत के निकट होने से नीलधारा है। नीलधारा (अर्थात् गँगा की वास्तविक मुख्य धारा) में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है।
भगवान् विष्णु के चरण पड़ने के कारण इस स्थान को हरि की पैड़ी कहा गया जो बोलचाल में हर की पौड़ी बन गया है और यही हरिद्वार का हृदय-स्थल है।
कनखल :: हरिद्वार की उपनगरी कहलाने वाला कनखल हरिद्वार से 3 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है। तीर्थस्थलों में हरिद्वार का सबसे प्राचीन तीर्थ कनखल ही है। माँ गँगा की मुख्यधारा से हर की पैड़ी में लायी गयी धारा कनखल में पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। माँ गँगा विशेष पुण्यदायिनी हैँं। यहाँ गँगा-स्नान का विशेष माहात्म्य है।
दक्ष प्रजापति ने यज्ञ, हरिद्वार के निकट यहीं पर किया था। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है।
दक्ष प्रजापति ने यज्ञ, हरिद्वार के निकट यहीं पर किया था। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है।
यज्ञवाटस्तथा तस्य गंगाद्वारसमीपतः।
तद्देशे चैव विख्यातं शुभं कनखलं द्विजाः॥[लिंग महापुराण]
सूत जी कहते हैं :- हे द्विजो! गंगाद्वार के समीप कनखल नामक शुभ तथा विख्यात स्थान है; उसी स्थान में दक्ष की यज्ञशाला थी। यहीं माता सती भस्म हुईं थीं। भगवान् शिव के कोप से दक्ष यज्ञ विध्वंस हो जाने के बाद यज्ञ की पूर्णता के लिए हरिद्वार के इसी स्थान पर भगवान् श्री हरी विष्णु की स्तुति की गयी थी और यहीं वे प्रकट हुए। हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है। संध्या समय माँ गँगा की हर की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्त्वपूर्ण अनुभव है। स्वरों व रंगों का संगम यहाँ प्रस्तुत होता है। तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए प्रवाहित करते हैं। विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार-यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित रहते हैं।
चण्डी देवी मन्दिर :: माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर माँ गँगा के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के नील पर्वत के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा 1,929 ई० में बनवाया गया था। शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया।[स्कन्द पुराण]
मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर, चंडीघाट से 3 किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं। माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओर हनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है।
मनसा देवी मन्दिर :: हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ।
मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से 187 सीढ़ियों के बाद लगभग 1 किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो मन की प्रफुल्लता बहुत बढ़ जाती है।
माया देवी मन्दिर :: माया देवी-हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी का 11 वीं शताब्दी में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं।
वैष्णो देवी मन्दिर :: हर की पैड़ी से करीब 1 किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है जो कि जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो देवी की अनुकृति है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता है। इसमें अकेले नहीं जा कर दो-तीन आदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं।
भारतमाता मन्दिर :: वैष्णो देवी मन्दिर से कुछ ही आगे भारतमाता मन्दिर है। इसके विभिन्न मंजिलों पर शूर मंदिर, मातृ मंदिर, संत मंदिर, शक्ति मंदिर तथा भारत दर्शन के रूप में मूर्तियों तथा चित्रों के माध्यम से भारत की बहुआयामी छवियों को रूपायित किया गया है। ऊपर विष्णु मंदिर तथा सबसे ऊपर शिव मंदिर है।
सप्तर्षि आश्रम-सप्त सरोवर :: भारत माता मंदिर' से ऑटो द्वारा आगे बढ़कर आसानी से सप्तर्षि आश्रम तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने पर सड़क की दाहिनी ओर सप्त धाराओं में बँटी माँ गँगा की निराली प्राकृतिक छवि दर्शनीय है। सप्तर्षियों ने तपस्या की थी और उनके तप में बाधा न पहुँचाने के ख्याल से माँ गँगा सात धाराओं में बँटकर उनके आगे से बह गयी थी। माँ गँगा की छोटी-छोटी प्राकृतिक धारा की शोभा बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आये पत्थरों के असँख्य टुकड़ों के रूप में स्वभावतः दर्शनीय है। यहाँ सड़क की दूसरी ओर सप्तर्षि आश्रम का निर्माण किया गया है। यहाँ मुख्य मंदिर भगवान् शिव का है और उसकी परिक्रमा में सप्त ऋषियों के छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। स्थान प्राकृतिक शोभा से परिपूर्ण है। अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और कुछ-कुछ दूरी पर सप्तर्षियों के नाम पर सात कुटिया बनी हुई हैं, जिनमें आश्रम के लोग रहते हैं।
शान्तिकुंज-गायत्री शक्तिपीठ :: गायत्री परिवार का मुख्य केन्द्र शांतिकुंज हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग में विशाल परिक्षेत्र में एक-दूसरे से जुड़े अनेक उपखंडों में बँटा, आधुनिक युग में धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों का कार्यस्थल है। यहाँ का सुचिंतित निर्माण तथा अन्यतम व्यवस्था सभी श्रेणी के दर्शकों-पर्यटकों के लिये आदर्श है।
पारद शिवलिंग :: कनखल में श्रीहरिहर मंदिर के निकट ही दक्षिण-पश्चिम में 151 किलो का पारद शिवलिंग है। मंदिर के प्रांगण में रुद्राक्ष का एक विशाल पेड़ है, जिस पर रुद्राक्ष के अनेक फल लगे रहते हैं।
दिव्य कल्पवृक्ष वन :: देवभूमि हरिद्वार के कनखल स्थित नक्षत्र वाटिका के पास हरितऋषि विजयपाल बघेल के द्वारा कल्पवृक्ष वन लगाया गया है। वैसे तो देवलोक के पेड़ कल्पतरु (पारिजात) को सभी तीर्थ स्थलों पर रोपित किया जा रहा है, परन्तु धरती पर कल्पवृक्ष वन के रूप में एकमात्र यही वन विकसित है, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु कल्पवृक्ष के दर्शन करके अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
पर्व-त्यौहार :: गहन धार्मिक महत्व के कारण हरिद्वार में वर्ष भर में कई धार्मिक त्यौहार आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं :- कवद मेला, सोमवती अमावस्या मेला, गंगा दशहरा, गुघल मेला जिसमें लगभग लाखों लोग भाग लेते हैं। यहाँ कुंभ मेले का आयोजित हर बारह वर्षों में होता है, जब बृहस्पति ग्रह कुम्भ राशिः में प्रवेश करता है।
हिन्दु वंशावली पंजिका :: हिन्दुअों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियाँ ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है, द्वारा हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं। प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है।
I have visited Haridwar at least 5 times, so far. Twice I was there to immerse the ashes of my honourable parents Shri Vidya Bhushan Bhardwaj and Shri Mati Dharm Vati Bhardwaj. I planned a visit to Rishi Kesh and visited it, on the way. The last was a visit to Badri Dham a pilgrimage, when I was here as well.
By the grace of God I have had pilgrimage of all the 4 sites of Kumbh i.e., Allahabad, Nasik, Ujjain and Haridwar.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)