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हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः।
ऋग्वेदं धारयन्विप्रो नैनः प्राप्नोति किञ्चन॥
तीनों लोकों की हत्या करके और इधर-उधर भोजन करके भी ऋग्वेद के अभ्यासी को कुछ पाप नहीं लगता।[मनुस्मृति 11.261]
One who practices Rig Ved, kills innumerable people, loiter hither & thither, takes food any where is not contaminated-slurred, sinned.
One who practices Rig Ved avoids the actions prohibited by Veds.
ऋक्संहितां त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः।
साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
जो समाहित चित्त होकर ऋग्वेद संहिता, यजुर्वेद संहिता अथवा रहस्य के साथ सामवेद का तीन बार अभ्यास करता है; वह सभी पापों से छूट जाता है।[मनुस्मृति 11.262]
One who practices Rig Ved Sanhita, Yajur Ved Sanhita or the secrets of Sam Ved thrice with dedication-absolute concentration is relinquished of all sins.
यथा महाह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति॥
जिस प्रकार बड़े तालाब में फेंका हुआ मिट्टी का ढ़ेला नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तीन बार वेद की तीन बार आवृति करने, पढने-अभ्यास करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।[मनुस्मृति 11.263]
As a clod of earth-clay, falling into a great lake, quickly dissolves, all sorts of sins are lost by the repetition of Veds thrice with due regard, concentration and practice.
ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च।
एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित्॥
ऋग्वेद और यजुर्वेद के मन्त्र तथा सामवेद के अनेक मन्त्र; इन तीनों वेदों के अलग-अलग मन्त्रों को जानने वाला ही त्रिवृत् ब्राह्मण, वेदविद् है।[मनुस्मृति 11.264]
One-the Brahmn, who has grasped the Mantrs of three Veds Viz. Rig Ved, Yajur Ved and Sam Ved is learned-enlightened & is called Vedvid.
आद्यं यत्त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन्प्रतिष्ठिता।
स गुह्योऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित्॥
आदि जो त्र्यक्षर ब्रह्म (ॐ ओम, प्रणव) है, जिसमें तीनों वेद स्थित हैं, वह प्रथम संज्ञक, दूसरा गुह्य त्रिवृत् है। उसे जो जानता है वह वेदविद् है।[मनुस्मृति 11.265]
One who knows the Ultimate-initiator, three alphabet Brahm, "Primordial sound :- ॐ-Om", in which the three Veds exists, which is absolutely secret-confidential; is learned-enlightened & is called Vedvid.
ऋग्वेद की शाखाएँ ::
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासी:। अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु। तद् वक्तारमवतु। अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
मेरी वाणी, मन में और मन वाणी में, प्रतिष्ठित हों। हे ईश्वर! आप मेरे समक्ष प्रकट हों। हे मन और वाणी! मुझे वेद विषयक ज्ञान प्रदान करें। मेरा ज्ञान क्षीण न हो। मैं अनवरत अध्ययन में लगा रहूँ। मैं श्रेष्ठ शब्द बोलूँगा, सदा सत्य बोलूँगा, ईश्वर मेरी रक्षा करें। वक्ता की रक्षा करें। मेरे आध्यत्मिक, आदिदैविक और आधिभौतिक, त्रिविध ताप शान्त हों।[ऋग्वेद शान्ति पाठ]
My speech-word should be present in the innerself-Man & the Man-should be present in the speech. Hey Ishwar! (O God!) You should be present before me. Hey Man & speech! (O Psyche & Speech!) Kindly grant me the knowledge pertaining to the Veds. My knowledge should not wane-lost. I should continue with study regularly of Veds-scriptures & History. I will speak the excellent words, I will speak the truth; the Almighty should protect me. The speaker (of truth) should be protected. My three types of troubles :- spiritual, divine-super natural & material troubles should calm down.
Light over the Moon ::
अत्राह गारमन्वत नाम त्वष्टुर पीच्यम इत्था चन्दमसा गृह॥
[ऋग्वेद 1.84.15]
The moving Moon always receives a ray of light from Sun.
Eclipses ::
यत्वा सूर्य स्वभानु स्तमसाविध्यदासुरः
आत्रविद्यथा मुग्धा भुवनान्यदीधयुः॥
[ऋग्वेद 5.40.5]
Hey Sun! When you are blocked by the one-Moon, whom you gifted your own light, then earth gets scared by sudden darkness. When rest of the world was scared thinking Eclipses were caused by some sort of black magic, Rishis explained the science behind it.
Gravitational force ::
हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते
अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति॥
[ऋग्वेद 1.35.9]
The Sun moves in its own orbit but holds the Earth and other heavenly bodies in such a manner that they do not collide with each other through the force of attraction.
Centripetal force between Sun and other planets ::
सविता यंत्रः पृथिवीमरम्णादस्कम्भन सविता द्यामदूहत। अश्वमिवाधुद्दुनिमन्तरिमतूत बद्धं सविता समुदम॥
[ऋग्वेद 10.149.1]
Sun has tied the Earth and other planets through its attraction and moves them around itself as if a trainer moves newly trained horses holding their reins.
Telegraphy in Veds ::
आवां रथं पुरुमायं मनाजुवं जीराश्चं यज्ञियं जीवस हुव।
सहस्त्रकर्तुं वमिनं शतद्वसुं श्रुष्टीवानं वरिवा धामभिपयः॥
[ऋग्वेद 1.119.10]
With the help of bipolar forces (Aswins), you should employ telegraphic apparatus made of good conductor of electricity. It is necessary for efficient military operations but should be used with caution.
अग्नि सूक्त ::
ऋषि मधुच्छन्दा :: वैश्वामित्र, देवता :: अग्नि, छंद :: गायत्री।
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा! इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूँ। सृष्टि के पूर्व भी आप थे और आपके अग्निरूप से ही सृष्टि की रचना हुई। हे अग्निरूप परमात्मा! आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं ऋतु में पूज्य हैं। आप ही अपने अग्निरूप से जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं एवं वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाले हैं। हे अग्निरूप परमात्मा! आप ही सब उत्तम पदार्थों को धारण करने एवं कराने वाले हैं।[ऋग्वेद 1.1.1]
I pray to Agni Dev! the prime Tattv of Parmatma by performing this Yagy. You were there before there was anything. With you the creation started. You are the giver of everything. I pray to you every day in all seasons. You sustain all creation and will consume it when the end comes. It is because of you that we get all the beautiful things of life. You are the source of everything beautiful.
I glorify Agni, the high priest of sacrifice, the divine, the ministrant, who is the offeror and possessor of greatest wealth.
हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं।
अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥
जो अग्निदेव पूर्व कालिन ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं, जो वर्तमान काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें।[ऋग्वेद 1.1.2]
Let Agni Dev, praised by the Brahm Rishis and prayed by the enlightened invite the demigods-deities to bless us in performing this Yagy.
अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्॥
स्तुति किये जाने पर पोषण कर्ता अग्निदेव मनुष्यों-यजमानों को प्रतिदिन विवर्धमान-बढ़ने वाला धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर पुरूष प्रदान करने वाले हैं।[ऋग्वेद 1.1.3]
One being prayed, Agni Dev grants ever increasing wealth, glory-honour and brave progeny (sons & grandsons).
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति॥
हे अग्निदेव! आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।[ऋग्वेद 1.1.4]
Hey Agni Dev! You are capable of protecting all. You protect the Yagy which is free from violence. Offerings, sacrifices reach the demigods-deities through you.
Agni Dev & the Brahmans are the mouth of the demigods, deities & the Almighty-God. Offerings-oblations in the Yagy, Hawan, Holi sacrifices in fire ultimately reach the God. Material objects, food grains etc. are transformed into energy when immersed in holy fire.
अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम:। देवि देवेभिरा गमत्॥
हे अग्नि देव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त हैं। आप देवों के साथ इस यज्ञ मे पधारें।[ऋग्वेद 1.1.5]
हवि :: यज्ञ, हवन आदि में अग्नि में छोड़े जाने वाले आहुति के द्रव्य, घी, जल।
Hey Agni Dev! You provide the goods-offerings for Yagy, Hawan to the sacrificer along with, wisdom-enlightenment and capability to perform-conduct deeds-sacrifices, ability to organise to the organiser-host. You pure-true form of God and blessed with extraordinary characteristics, traits, qualities. Kindly attend the Yagy held by me along with the deities-demigods.
यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत् सत्यमग्ङिर:॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ करने वाले यजमान को समृद्धि, धन, आवास, सन्तान एवं पशु प्रदान कर जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है।[ऋग्वेद 1.1.6]
Hey Agni! What ever goods, riches, prosperity-affluence, residence, progeny & cattle you bestow-provide to the host will be back to you through Yagy-Hawan conducted by him in future.
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा हम आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव! हमें आपका सान्निध्य प्राप्त हो।[ऋग्वेद 1.1.7]
Hey Agni Dev! the illuminator (dispeller) of darkness, we are your pure, true-pious worshippers. We worship you through genius & keep on praising you throughout day & night. We desire your company.
राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलौकित करने वाले, यज्ञ स्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुति पूर्वक आते हैं।[ऋग्वेद 1.1.8]
We the host-household approach the Agni Dev who enhances itself, protects the Yagy, produce aura around us conducting fast, in the form of truthfulness by making prayers-requests.
स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव। सचस्वा न: स्वस्तये॥
हे गाहर्पत्य अग्ने! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी हम यजमानों के लिये, बाधा रहित होकर सुख पूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे।[ऋग्वेद 1.1.9]
Hey Agni! You should be easily accessible to us, like a father to his son, accordingly-similarly you should be available to us-the host performing Yagy without any obstacles and remain with us for our welfare-well being.
प्रकाश का वेग ::
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्वमा भासि रोचनम्॥
हे सूर्य देव! आप साधकों का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार में एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक हैं तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.50.4]
हे सूर्य! तुम वेगवान सभी के दर्शन करने योग्य हो। तुम प्रकाश वाले सभी को प्रकाशित करते हो।
उद्धार :: निस्तार, मुक्ति, छुटकारा, बचाव, छुड़ाना; deliverance, extrication, releasement, rescue.
Hey Sury-Sun Dev! You release the devotee from the cycle of birth & death. You are the only source of light for the whole universe.
तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥[सायण ऋग्वेद भाष्य]
1 योजन = 8 मील लगभग
2,202 योजन = 8 x 2202 = 17,616 मील;
सूर्य का प्रकाश 1/2 (आधे) निमिष में 2,202 योजन चलता है अर्थात 0.08889 सेकंड में 17,616 मील चलता है। 0.08889 सेकंड में प्रकाश की गति = 17,616 मील 1 सेकंड में = 17616 / 0.08889 = 19,8177 मील (लगभग)
प्रकाश की गति 1 सेकंड में = 17616 / 0.08889 = 198,177 मील लगभग तथा वर्तमान आधुनिक विज्ञानों के अनुसार प्रकाश गति गणना 1,86,000 मील प्रति सेकंड लगभग मानी जाती है।
उभा शंसा नर्या मामविष्टामुभे मामूती अवसा सचेताम्।
भूरि चिदर्यः सुदास्तरायेषा मदन्त इषयेम देवाः॥
दोनों द्युलोक और पृथ्वी लोक माता-पिता के तुल्य हैं। दोनों ही जीवों का हित करने वाले हैं। ये हमारा रक्षण करने वाले हैं और अन्न और धन के प्रदाता हैं। हम इन दोनों से प्रार्थना करते हैं कि जो दूसरों का हित करने वाले मनुष्य हैं, उन्हें आप संरक्षण दें और साधनों से परिपूर्ण कर दें।[ऋग्वेद 1.185.9]
Both heaven and earth are like father-mother. Both of them are benefactors to living beings. They are our protectors and providers of food and wealth. We pray to both of them that those who work for the welfare of others, provide protection to them and make them full of means.
सूर्य-सूक्त :: ऋषि :- कुत्स आङ्गिरस, देवता :- सूर्य, छन्द :- त्रिष्टुप्।
इस सूक्त के देवता सूर्य सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र, जगत की आत्मा, और प्राणी को सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले देव हैं। देव मण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, कि ये जीव के लिये प्रत्यक्ष गोचर हैं। ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करने वाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं; अतः समस्त प्राण धारियों के लिये स्तवनीय हैं, वन्दनीय हैं।
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुण स्याग्ने:।
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ ् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥
प्रकाशमान रश्मियों का समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्य मण्डल के रूप में उदित हो रहे हैं। ये मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है। इस मण्डल में जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं।[ऋग्वेद 1.115.1]
Groups of rays or the group of demigods are rising in the form of the solar system with constellations. He forms the eyes of Mitr, Varun and the entire universe. He has lit the entire space, earth and the cosmos. The Sun who is present in this group is omniscient, immanent, all knowing & is the motivating force-Almighty for all sorts of organism and the stable-stationary objects.
सूर्यों देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात्।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥
सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषा देवी के पीछे-पीछे चलते हैं, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग-सुन्दरी युवती का अनुगमन करे! जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करने के लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करते हैं। सूर्य कल्याणरूप हैं और उनकी आराधना से कर्तव्य कर्म के पालन से कल्याण की प्राप्ति होती हैं।[ऋग्वेद 1.115.2]
Sun follows Usha (day break) just like a man who follows an extremely beautiful woman. The devoted humans begins with their work-endeavours with the appearance of Usha, to pray to the deity of light i.e., Sun. Sun is a form of welfare of all and with his worship one enables himself to achieve welfare.
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परिद्यावा पृथिवी यन्ति सद्यः॥
सूर्य का यह रश्मि-मण्डल अश्व के समान उन्हें सर्वत्र पहुँचाने वाला चित्र-विचित्र एवं कल्याणरूप है। यह प्रतिदिन तथा अपने पथ पर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है। यह सबको नमन की प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोक के ऊपर निवास करता है। यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वी का परिमन्त्रण कर लेता है।[ऋग्वेद 1.115.3]
The aura-brightness of Sun moves like a horse to take him all around in various curious ways-forms. It always moves over its own path everyday is deserve worship. It inspire everyone to pray and remains it self above the heavens. It immediately covers the entire universe i.e., the heavens, earth (& the nether world).
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्वंततं सं जभार।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥
सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्य का यह ईश्वरत्व और महत्त्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किंतु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्म को ज्यों का त्यों छोड़कर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणों को इस लोक से अपने-आप में समेट लेते हैं। साथ ही उसी समय अपने रसाकर्षी किरणों और घोड़ों को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं। उसी समय रात्रि अन्धकार के आवरण से सबको आवृत्त कर देती है।
Its Godly-eternal character of the Sun that he leaves the work (to be taken up next day) as such at the time of Sun set and sucks his rays as well & moves-deploy his horses, which pulls his charoite else where. It leads to darkness all around i.e., night falls.[ऋग्वेद 1.115.4]
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥
प्रेरक सूर्य प्रात:काल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिये प्राची के आकाशीय क्षितिज में अपना प्रकाशक रूप प्रकट करते हैं। इनकी रसभोजी रश्मियाँ अथवा हरे घोड़े बलशाली रात्रिकालीन अन्धकार के निवारण में समर्थ विलक्षण तेज धारण करते हैं। उन्हीं के अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अन्धकार की सृष्टि होती है।[ऋग्वेद 1.115.5]
प्राची :: पूर्व; orient, the east.
विलक्षण :: Grotesque, Fantabulous.
The Sun rises in the east to illuminate Mitr, Varun & the entire living world in the front, at the horizon. Its rays of light which sucks the liquids-extracts and the green horses removes the darkness of the night and with its aura-energy, which is grotesque, fantabulous. Their movement elsewhere causes night.
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नोमित्रोवरुणोमामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥
हे प्रकाशमान सूर्य-रश्मियो! आज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो। न केवल पाप से ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख-दारिद्रय है, सबसे हमारी रक्षा करो। जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और धुलोक के अधिष्ठातृ देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें।[ऋग्वेद 1.115.6]
गर्हणीय :: निंदनीय, तिरस्करणीय, घृणाजनक, गर्हणीय, घृणित, गर्हणीय, नीच, अधम; inaccessible, condemnable, detestable, execrable.
Hey the bright Sun rays! Protect us from sins by spreading all around. Not only the sins but protect us from every thing which is condemnable, inaccessible, pains-sorrow & the poverty. What has been said by us be respected (approved, sanctioned) by Mitr, Varun, Aditi, Sindhu, earth and the worshipped deities of the heavens, protecting us.
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।
उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा॥
हे मन्त्र सिद्धि के प्रदाता परमदेव! सत्य-संकल्प से आपकी ओर अभिमुख हमें आपका अनुग्रह प्राप्त हो। शोभन दान से युक्त वायुमण्डल हमारे अनुकूल हो। हे सुख-धन के अधिष्ठाता! भक्ति भाव से समर्पित भोग-राग को आप अपनी कृपा दृष्टि से अमृतमय बना दें।[ऋग्वेद 1.40.1]
Hey Ultimate deity! We the ones who are determined to follow the path of truth wish to have your grace-favours. The environment should favour us. Hey the master of wealth! Please make the offering by us as good as the nectar, ambrosia, elixir.
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।
अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः॥
मन्त्र-सिद्धि प्रदाता परमदेव की कृपा दृष्टि के हम भागी हों। प्रिय एवं सत्यनिष्ठ वाणी की अधिष्ठात्री देवी की सत्प्रेरणा से हम अभिसिंचित हों। समस्त देवगण दिव्य ऊर्जायुक्त, जीवमात्र के लिये कल्याणकारी एवं भक्ति भाव से समृद्ध यज्ञ-सत्कर्म हेतु हमें प्रतिष्ठित करें। [ऋग्वेद 1.40.3]
We should qualify for the blessings of the Ultimate deity who grants accomplishments. We should be quenched with the loving & truthful words due to the guidance of the deity of speech-Maa Saraswati. We should be blessed (granted, established) with divine energy-capability, devotion to perform social welfare-justice by all demigods & deities.
भोजन से पूर्व उच्चारणीय मंत्र RECITE THESE MANTR PRIOR TO FOOD INTAKE ::
ओं स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन अग्ने
त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन॥
अविनाशी, सबको भोजन देने वाले हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.44.5]
Hey imperishable, always young Agni Dev! You grant-give food to every one carry the offerings to the demigods-deities, remove all the troubles of this world-worshippers, we worship you.
भोजन के बाद उच्चारणीय मंत्र MANTR TO BE RECITED AFTER THE MEALS ::
ओं मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥
बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी, मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। उसका ऐसा व्यापार-व्यवहार उसके नाश का ही कारण है। जो अकेला खाने वाला है, वह केवल पाप का भागी होता है। मैं सत्य कहता हूँ अर्थात् इस कथन के सच होने में किञ्चित मात्र भी सन्देह नहीं है।[ऋग्वेद 10.117.6]
An imprudent-one who lacks intelligence try to obtain food without working-earning all his endeavours are lost. A person who eats alone becomes a sinner.
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयम्।
हम देवों की मैत्री करें।[ऋग्वेद 1.89.2]
Let have friendship with the (deities, people who are close to divinity. Let us become like them.) virtuous, kind, unattached, devoted, enlightened, learned, prudent, wise.
भद्रं-भद्रं क्रतु मस्मासु धेहि।
हे प्रभु! हम लोगों को सुख और कल्याणमय उत्तम संकल्प, ज्ञान और कर्म को धारण कराओ।[ऋग्वेद 1.123.13]
O! The Almighty! Kindly help us to attain the ultimate (pertaining to the Ultimate, the Almighty) virtues, commitments, knowledge, wisdom, enlightenment and deeds, endeavours, goals).
प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान् प्रतिगृह्या नि धत्ते।
तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचते सुवीरः॥
प्रातःकाल का सूर्य उदय हो कर बहुमूल्य रत्न प्रदान करता है। बुद्धिमान उन रत्नों के महत्व को जान कर उन्हें अपने में धारण करते हैं। तब उस से मनुष्यों की आयु और सन्तान वृद्धि के साथ सम्पन्नता और पौरुष बढ़ता है।[ऋग्वेद 1.125.1]
The Sun rises in the morning to grant valuable assets for the humans in the form of rays of light which are full of energy essential for them to grow and build the body.
Sun light produces vitamin D through the mechanism present in the knees, where red blood corpuscles RBC's too are formed. The enlightened grasps the significance of the Sun rise and act accordingly. Early to bed early to rise makes a man healthy wealthy & wise. It helps in increasing the age, resistivity, potency, wealth.
Never look at the Sun in the morning and evening when its rays are red in colour-infra red rays may destroy retina of the eyes.
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति।
जो उस ब्रह्म को नहीं जानता, उसे वेद से क्या तात्पर्य-लेना देना।[ऋग्वेद 1.164.39]
One who is not aware of the existence of the Almighty, has no concern for Ved, its teachings, knowledge or the evolution of life either on earth or else where.
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
उस एक प्रभु को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं।[ऋग्वेद 1.164.46]
People call, address, remember HIM-the Almighty, by different names i.e., Bhagwan, God, Ishwar which are the titles of the same force. One is teacher for the students, father for the children, husband for the wife, employer for the servant, a resident for the countrymen, traveller-passenger for the crew.
MOTION OF EARTH ::
यः पृथ्वीं व्यथमानामदृंहत् यः जनास इंद्र।
काँपती हुई पृथ्वी को इन्द्र (परमात्मा-ईश्वर) ने स्थिर किया है। गमनशील पृथ्वी, जिसे सूर्य आकर्षण से बाँधता है।[ऋग्वेद 2.12.2]
व्यथमानम् 'व्यथ' से बना है। इसका अर्थ शब्द कल्पद्रुम में दिया है:-"चाले। भये। इति कवि-कल्पद्रुमः"॥
यहाँ "चाले" गमनार्थक शब्द है।
The earth has been established by the Almighty. The gravitational attraction between the Sun & the Earth established them.
Each and every planet, star, solar system, satellites is revolving round one or the other object with a fixed speed.
ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्॥
वसु, रूद्र, आदित्य आदि गण देवों के स्वामी, ऋषि रूप कवियों में वन्दनीय, दिव्य अन्न-सम्पत्तियों के अधिपति, समस्त देवों में अग्रगम्य तथा मन्त्र-सिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ, जप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से हम आपका आवाह्न करते हैं। आप हमें अभय-वर प्रदान करें।[ऋग्वेद 2.23.1]
The head-master of Vasu, Rudr, Adity etc. Gan, honoured-revered (Wisdom of the Wise and Uppermost in Glory) amongest the Rishis like poets, masters of divine grains-assets, We invite you through Jap-recitation of prayers, other charity-donations (Sacrificial Oblations) & rites, recitations, ceremonies. Kindly bless us with the protection-asylum, desired virtuous rewards.
Please come to us by Listening to our Invocation and be Present in the Seat of this Sacred Sacrificial Altar to charge our Prayers with Your Power and Wisdom.
ॐ भूर्भुवस्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम्; भर्गो देवस्य धीमहि; धियो यो न: प्रचोदयात्।उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।[ऋग्वेद 3.62.10]
Let us adopt the Almighty who is like our soul, kills-relieves pains-sorrow, grants bliss-pleasure, is excellent-unparalleled, energetic, relieves from sins-wickedness, evils, in our innerself-soul. Let HIM direct our mind to holy (virtuous, righteous, pious) path.
स्वस्ति पन्थामनु चरेम।
हम कल्याण मार्ग के पथिक हों।[ऋग्वेद 5.51.15]
Let us follow the path which leads to the benefit-well being of all. This road leads to the Almighty. There are various ways to achieve HIM like Karm Yog, Gyan-Sankhy Yog, Bhakti Yog. Prayers, asceticism, service to mankind, piousity, chastity are some other means for emancipation, Salvation, Assimilation in God, Liberation.
स चित्र चित्रं चितयन्तमस्मे चित्रक्षत्र चित्रतमं वयोधाम।
चन्द्रं रयिं पुरुवीरं बर्हन्तं चन्द्र चन्द्राभिर्ग्र्णते युवस्व॥
हे (चित्र) अद्भुत गुण कर्म और स्वभाव वाले (चित्रक्षत्र) अदभुत राज्य वा धन से युक्त (चन्द्र) आह्लादकारक, जैसे (सः) वह विद्वान् (चन्द्राभिः) आनन्द और धन करने वाली प्रजाओं से (अस्मे) हम लोगों के लिये (चित्रम्) आश्चर्य्यभूत (चन्द्रम्) आनन्द देने वाले सुवर्ण आदि को (चितयन्तम्) जनाते हुए तथा (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्ययुक्त रूप और (वयोधाम) जीवन के धारण करने और बृहन्तम् बड़े (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के देने वाले (रयिम्) धन की (गुणते) स्तुति करता है, उस को आप (युवस्व) उत्तम प्रकार युक्त करिये।[ऋग्वेद 6.6.7]
Wondrous! Of wondrous power! I give to the singer wealth wondrous, outstanding, most wonderful, life-giving. Bright wealth, O Refulgent Divine Wisdom, vast, with many aspects, give understanding to your devotee.
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥
हे अग्ने! हवि-भक्षण करने के लिये तू आ, देवों को हवि देने के लिये जिसकी स्तुति की जाती है, ऐसा तू यज्ञ में ऋत्विज् होता हुआ आसन पर बैठ।[ऋग्वेद 6.16.10]
Hey Agni Dev! Please come and acquire the seat of Ritviz-the person making offerings to the demigods-deities. Please eat the offerings to the demigods-deities for whom you act the mouth.
एको विश्वस्य भुवनस्य राजा।
वह सब लोकों का एकमात्र स्वामी है।[ऋग्वेद 6.36.4]
HE is the sole owner, master, king, ruler, emperor of all abodes. HE is the creator, nurturer and destroyer of all abodes viz. Heavens, Earth and the Nether World-Patal.
नयसीद्वति द्विष: कृणोष्युक्थशंसिन:। नृभि: सुवीर उच्यसे॥
हे प्रभु! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है। सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है। [ऋग्वेद 6.45.6]
Hey Almighty! You eliminate-remove the enmity from within us and make us appreciate-pray to YOU (seek asylum, protection under YOU). YOU are called due to the truthful devotees.
MORNING PRAYER प्रातः स्मरण-आराधना ::
प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम॥
हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! आप स्वप्रकाश स्वरूप-सर्वज्ञ, परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य से युक्त, प्राण और उदान के समान, सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न करने वाले हैं। आप भजनीय, सेवनीय, पुष्टिकर्त्ता हैं। आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता, अन्तर्यामी और प्रेरक, पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोग नाशक हैं। हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.41.1]
यह महर्षि वशिष्ठ द्वारा भगदेवता-ईश्वर से सभी रोगों से मुक्ति पाने की प्रार्थना है। इसके प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक पाठ करने से असाध्य से भी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं और दीर्घायु प्राप्त होती है।
Hey Almighty! YOU bear (inbuilt) aura, all knowing, possess & grants ultimate comforts-bliss, support Pran Vayu-life sustaining force in us, creator of Sun & Moon, has to be prayed by us-devotees. YOU maintain-nurture your devotees, Ved & the Universe, punishes the sinners & eliminates all diseases-illness. We pray to YOU in the morning.
प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह॥
हे ईश्वर! आप जयशील, ऐश्वर्य के दाता, तेजस्वी, ज्ञानस्वरूप, अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न कर्ता, सूर्यादि लोकों को धारण करने वाले हैं। आप सभी को जानते वाले, दुष्टों को दण्डित करने वाले हैं। मैं आपकी स्तुति (प्रार्थना, उपासना) करता हूँ।[ऋग्वेद 7.41.2]
Hey Almighty! YOU grants victory, bliss-comforts, creator & supporter-nurturer of the Sun, sustains the universe, know everyone, punish the sinners & enlightens all. I pray to YOU.
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगे मां धियमुदवा ददन्नः।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम॥
हे ईश्वर! आप भजनीय, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक-सत्य धन को देने वाले, ऐश्वर्य देने वाले हैं। हमें प्रज्ञा का दान देकर हमारी रक्षा कीजिए, गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए। आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें।[ऋग्वेद 7.41.3]
Hey Almighty! We worship YOU-who created all, leads us to divine virtues-truthfulness, grants all sorts of amenities, prudence-intelligence, enlightenment, wealth (cows, horses etc.) and to become excellent & brave humans.
उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अन्हाम्।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम॥
हे परम पूजित ईश्वर! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में उत्तमता प्राप्त करें और सूर्यास्त के समय ऐश्वर्य से युक्त हों। हम लोग देवपुरुषों की उत्तम प्रज्ञा और सुमति में तथा उत्तम परामर्श में सदा रहें।[ऋग्वेद 7.41.4]
Hey Almighty! We should be enriched & powerful by way of our efforts & YOUR kindness during the morning, noon & the evening. We should be ready-inclined to attain prudence-enlightenment from the learned-enlightened.
भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह॥
हे जगदीश्वर! सज्जन पुरुष आपको सकल ऐश्वर्य सम्पन्न कहते हैं, आपकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं। आप इस संसार में हमारे अग्रणी, आदर्श, शुभ कर्मों में प्रेरित करने वाले हों। आपके कृपा कटाक्ष से हम विद्वत्व, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होकर, सब संसार के उपकार में तन, मन, धन से प्रवृत्त होयें।[ऋग्वेद 7.41.5]
Hey Almighty! The virtuous, righteous, pious, truthful call YOU the Ultimate Bliss-comfort and praise YOU. YOU should be our idol-role model & direct us to pious-virtuous deeds. By virtue of YOUR kindness-blessings, we should become enlightened, attain all sorts of amenities and serve the humanity with our body, mind and wealth.
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
सुगन्ध युक्त, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव समस्त प्राणियों को भरण-पोषण, पालन-पोषण करने वाले, हमें संसार सागर (मृत्यु-अज्ञान) से उसी प्रकार बन्धन मुक्त करें, जिस प्रकार खीरा अथवा ककड़ी पककर बेल से अलग हो जाती है।[ऋग्वेद 7.59.12]
I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे 'त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठ जी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता गणों की निम्नलिखित शक्तियाँ निश्चित की हैं। इसमें 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।
शब्द की शक्ति :- 'त्र' त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र 'य' यम तथा यज्ञ 'म' मंगल 'ब' बालार्क तेज 'कं' काली का कल्याणकारी बीज 'य' यम तथा यज्ञ 'जा' जालंधरेश 'म' महाशक्ति 'हे' हाकिनो 'सु' सुगन्धि तथा सुर 'गं' गणपति का बीज 'ध' धूमावती का बीज 'म' महेश 'पु' पुण्डरीकाक्ष 'ष्टि' देह में स्थित षटकोण 'व' वाकिनी 'र्ध' धर्म 'नं' नंदी 'उ' उमा 'र्वा' शिव की बाईं शक्ति 'रु' रूप तथा आँसू 'क' कल्याणी 'व' वरुण 'बं' बंदी देवी 'ध' धंदा देवी 'मृ' मृत्युंजय 'त्यो' नित्येश 'क्षी' क्षेमंकरी 'य' यम तथा यज्ञ 'मा' माँग तथा मन्त्रेश 'मृ' मृत्युंजय 'तात' चरणों में स्पर्श, क्रमशः प्रकट करते हैं।
मंत्र विचार : इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं, वे देवताओं के नाम हैं यथा :- 'त्र' ध्रुव वसु 'यम' अध्वर वसु 'ब' सोम वसु 'कम्' वरुण 'य' वायु 'ज' अग्नि 'म' शक्ति 'हे' प्रभास 'सु' वीरभद्र 'ग' शम्भु 'न्धिम' गिरीश 'पु' अजैक 'ष्टि' अहिर्बुध्न्य 'व' पिनाक 'र्ध' भवानी पति 'नम्' कापाली 'उ' दिकपति 'र्वा' स्थाणु 'रु' भर्ग 'क' धाता 'मि' अर्यमा 'व' मित्रादित्य 'ब' वरुणादित्य 'न्ध' अंशु 'नात' भगादित्य 'मृ' विवस्वान 'त्यो' इंद्रादित्य 'मु' पूषादिव्य 'क्षी' पर्जन्यादिव्य 'य' त्वष्टा 'मा' विष्णु 'ऽ' दिव्य 'मृ' प्रजापति 'तात' वषट, क्रमशः प्रकट करते हैं। शब्द की शक्ति :- 'त्र' त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र 'य' यम तथा यज्ञ 'म' मंगल 'ब' बालार्क तेज 'कं' काली का कल्याणकारी बीज 'य' यम तथा यज्ञ 'जा' जालंधरेश 'म' महाशक्ति 'हे' हाकिनो 'सु' सुगन्धि तथा सुर 'गं' गणपति का बीज 'ध' धूमावती का बीज 'म' महेश 'पु' पुण्डरीकाक्ष 'ष्टि' देह में स्थित षटकोण 'व' वाकिनी 'र्ध' धर्म 'नं' नंदी 'उ' उमा 'र्वा' शिव की बाईं शक्ति 'रु' रूप तथा आँसू 'क' कल्याणी 'व' वरुण 'बं' बंदी देवी 'ध' धंदा देवी 'मृ' मृत्युंजय 'त्यो' नित्येश 'क्षी' क्षेमंकरी 'य' यम तथा यज्ञ 'मा' माँग तथा मन्त्रेश 'मृ' मृत्युंजय 'तात' चरणों में स्पर्श, क्रमशः प्रकट करते हैं।
यह मन्त्र महर्षि वशिष्ठ ने हमें प्रदान किया। आचार्य शौनक ने ऋग्विधान में इस मन्त्र का वर्णन किया है। नियम पूर्वक व्रत तथा इस मंत्र द्वारा पायस (खीर, pudding) के हवन से दीर्घ आयु प्राप्त होती है, मृत्यु दूर है तथा प्रकार सुख प्राप्त होता है। इस मंत्र के अधिष्ठाता भगवान् शिव हैं।
नवधा भक्ति राख्याता मुख्यां तत्रार्चनां शिवाम्।
प्राह भागवतीं सेवामरं दास इति श्रुतिः॥
अरं दासो न मीळ्हुषे कराण्यहं देवाय भूर्णयेऽनागाः।
अचेतयदचितो देवो अर्यो गृत्सं राये कवितरो जुनाति॥[ऋग्वेद 7.86.7]
मैं निषिद्धाचरण से वर्जित भक्त किसी दास की तरह असीम फल की प्राप्ति के लिये चतुर्विध-पुरुषार्थ दाता परमेश्वर को पुष्पादि से अलंकृत करता हूँ, ताकि वे मुझ पर प्रसन्न हों। ये देव सर्वस्वामी होकर अपने संनिधान से पाषाण को भी पूजनीय बना देते हैं। बहुदर्शी पुरुष ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये प्राणनादि कर्ता उस परमेश्वर को ही पूजनादि से प्रसन्न करते हैं, क्षुद्र फल प्रद राजा आदि की परवाह नहीं करते।
EVOLUTION ::
समुद्रादर्वादधि संवत्सरों अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥
उस जल परिपूर्ण समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात संवत्सर अर्थात क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल उत्पन्न हुआ। सबको वश में रखने वाले, सारे ब्रह्माण्ड के नियामक और व्यवस्थापक परमेश्वर ने सहज स्वभाव से जगत के रात्रि, घटिका, पल और क्षण आदि रचे।[ऋग्वेद 10.190.2]
सुर्यचन्द्रमसौ दाता यथापूर्वमकल्पयत।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व:॥
सब जगत को धारण और पोषण करने वाले, सब जगत को वश में रखने वाले, उसी ज्ञानमय प्रभु ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा को; द्युलोक, पृथ्वी लोक और आन्तरिक लोक को; मध्यवर्ती लोक-लोकान्तरों को और उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को पूर्व कल्प के अनुसार रचा है अर्थात जैसा उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत रचने का ज्ञान था, पूर्वकल्प में जगत की जैसी रचना की थी और जीवों के पाप-पुण्य थे, उन्हीं के अनुसार परमेश्वर ने मनुष्य आदि प्राणियों के देह बनाए।[ऋग्वेद 10.190.3]पुरुष सूक्त :: ऋषि :- नारायण, देवता :- पुरुष।
ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, यजुर्वेद (31वाँ अध्याय), अथर्ववेद (19वें काण्ड का छठा सूक्त), तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। इसमें विराट पुरुष (महा विष्णु, गौलोक में भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी पुत्र) का उनके अंगों सहित वर्णन है।
इस सूक्त में विराट पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि निरूपण की प्रक्रिया का वर्णन है।
विराट पुरुष के अनन्त सिर, नेत्र और चरण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एक पाद्वि भूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥1॥
(पुरूषः) विराट रूप काल भगवान् अर्थात् क्षर पुरूष (सहस्रशीर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला है। (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्माँडो को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं, वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्माण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
The Ultimate-Param Purush has thousands of hands, legs, eyes, ears etc. He has pervaded the whole universe on one hand and on the other he is away from it, maintaining infinite distance.
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
(एव) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर (पुरूष) ईश्वर है। वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है (च) और (इदम्) यह (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का (इशानः) स्वामी है अर्थात् ईश्वर तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है, परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ ईश्वर वाले लक्षणों से युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेह युक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चैरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।
He for ever, ever since. He is present, past & the future. He is the ultimate being yet he is not the Almighty. He is the governor of all demigods-deities who survive over the strength of the food provided by him.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥
(अस्य) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरूषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त (भूतानि) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्रा है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्माण्डों में उत्पन्न है। वह सत्य पुरूष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है।
इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्रा पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है, क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16.17 में है।
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान हैं। उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।
वैभव :: भव्यता, तेज, प्रताप, शान, चमक, महिमा, गौरव, बड़ाई; grandeur, splendour, majesty.
Every thing pertaining to past, present & the future is the grandeur of the Ultimate being Virat Purush-Maha Vishnu). He is greater than this extension. His, just one fragment covers the whole universe made of Panch Tatv. His remaining three segments cover the entire divine creations like Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥
(पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊध्र्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात ऊपर के हिस्से में (उदैत) प्रकट होता है अर्थात विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ्) सर्वत्रा (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है। वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर फैलाया है।
यही सर्व सृष्टी रचनाकार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्म-दण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है, परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर ऐसे फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सब के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी क्षमता को सभी ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है।
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय, उभयात्मक जगत को परिव्याप्त किये हुए हैं।
The Ultimate being is established over the perishable-virtual (imaginary) world. This universe is just one fragment of his extensions. He is pervading the inertial-static and the conscious-living world.
तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात काल भगवान् से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात स्थापित किया।
तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुईं।
गीता अध्याय 3, मन्त्र 15 :- अक्षर पुरूष अर्थात अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ।
अर्थववेद काण्ड 4, अनुवाक 1, सूक्त 3 :- पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई। उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात इसका भी मालिक है।
उन्हीं आदि पुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।
The Ultimate being (Adi Purush) led to the creation of the universe. He evolved as Adhi Purush-Adhi Devta as Hirany Garbh (Golden Womb Shell, out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu evolved, followed By Brahma Ji from his naval lotus). Thereafter, he created the other abodes like earth and species like demigods-deities, humans, insects, plants shrubs etc. etc.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।
Its the Yagy Purush who evolved the Rig Ved, Sam Ved and the Mantr of Yajur Ved and the Chhand-stanza.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥8॥
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।
Horses, cows, sheep & goats having teeth in upper & the lower jaws evolved out of him.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥9॥
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।
Demigods-deities, Sadhy Gan (one kind-specie of demigods) and the Rishi Gan prayed to the Yagy Purush who evolved first over the Kush grass, initially.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥10॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते हैं?
At the time of creation of the Virat-Yagy Purush, his mouth, arms, thighs, legs were conceptualised.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।
ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जँघा से, जबकि शूद्र पाँव से जन्मे हैं।ये सभी दिव्य जन्मा हैं।
मानवी सृष्टि महर्षि कश्यप से प्रारम्भ हुई अतः "जन्मना जायते शूद्र:"[मनुस्मृति] जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीति में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण (बढ़ई, लोहार, सोनार आदि) व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।
The Brahmans appeared from the mouth, Kshatriy from the arms, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the feet of Brahma Ji, as divine species.
The humans were created by Maharshi Kashyap through sexual intercourse. They too were titles Brahmans, Kshatriy, Vaeshy and Shudr on the basis of the Karm-practices adopted by them.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥13॥
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।
The space was created from his naval, mind produced the heavens, legs produced the earth, ears led to the formations of the 10 directions. In this manner all abodes are assumed to present in the Virat Purush-Maha Vishnu.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी।
The extension of the Yagy had the Purush as the offering, spring season was its Ghee-clarified butter, wood & summers and the winters became offerings in the holy fire.
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिाः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥15॥
(सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्म दण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं, जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है। जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात बन्धन तोड़ने वाला बन्दी छोड़ है।
यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 :- कविरंघारिसि (कविर्) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ परमेश्वर (असि) है।
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु को बन्धन मुक्त किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।
When the demigods-deities released the animal in the form of Human, seven seas were surrounding it. 21 types of stanza-prayers (like Gayatri, Ati Jagti & Krati) became its Samidha-pious wood for Agni Hotr.
यज्ञेन यज्ञमSयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥
जो (देवाः) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्रा) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।
जो निर्विकार (जिन्होंने माँस, शराब, तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित हैं, वे) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं, वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं, जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं।
उपनिषद् इस मन्त्र में मोक्ष-निरूपण का उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपण के लिये श्रुति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये कि सम्पूर्ण कर्म, जो भगवद् अर्पण बुद्धि से भगवान् के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्म रूप यज्ञ के द्वारा सात्त्विक वृत्तियों ने उन यज्ञस्वरूप भगवान् का युज़न-पूजन किया। इसी भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ रूप कर्मों के द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। धर्माचरण की उत्पत्ति भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से हुई। इस प्रकार भगवद् अर्पण बुद्धि से अपने समस्त कर्मो के द्वारा जो भगवान् के यजन रूप कर्म का आचरण करते हैं, वे उस भगवान् के दिव्य धाम को जाते हैं, जहाँ उनके साध्य-आराध्य आदि देव भगवान् विराजमान हैं।
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं।)[शु.यजु. 31.1-16; ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद्]
The demigods-deities prayed to the Yagy Purush in this manner. As an outcome of this Dharm appeared first. By adopting-following this Dharm-religious practices, the demigods-deities become glorious and enjoy the heavens where Sadhy Gan reside.
Following two Shloks looks like later additions.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥17॥
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्य के समान प्रकाश स्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धि में रमण करने वाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है।
I know him, the Ultimate being, who is beyond darkness, in the form of Adity-Sun, aura, who resides in the minds of all, who created all beings-forms of life and the inertial-static world and names them and moves all around bearing these names-titles.
ये मन्त्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में नहीं मिलते, परन्तु पुरुष सूक्त के पृथक प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्, महावाक्योपनिषद् तथा चित्युपनिषद् में भी आये हैं। यह मन्त्र तैत्तिरीय आरण्यक में भी है।
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय॥18॥
पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्ति का नहीं है।
Whom Brahma Ji worshipped in ancient period, Indr found him pervading in all directions and the one who who identifies him like this become capable of attaining Salvation-Moksh. There is no other means to seek liberation-emancipation.
EVOLUTION सृष्टि उत्पत्ति नासदीय सूक्त ::
ऋषि :- प्रजापति, परमेष्ठी देवता :- भाववृत्त।
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम्॥1॥
उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्-भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः-स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन-कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था अर्थात् वे सब नहीं थे।[ऋग्वेद 10.129.1]
इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का आस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व अर्थात इस जगत में केवल परमात्मा ही था। तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था। चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के अलावा कुछ नहीं था।
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed every where. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma Ji to evolve in next Kalp.
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed every where. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma Ji to evolve in next Kalp.
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत-मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।[ऋग्वेद 10.129.2]
That was the occasion when neither death or immortality existed. It was neither day nor night. It was just the Brahm, Almighty-God who prevailed, WHO has neither beginning not end. HE is since ever for ever. HE evolves by HIMSELF. HE is the only one WHO perpetuate none else, nothing else.
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥
सृष्टि के उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल-जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे। यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था। इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।[ऋग्वेद 10.129.3]
Prior to evolution it was dark all around. Nothing was known. It was water all around. The Brahm was shrouded with the non existent-unknown matter. HE existed due to the Tap-ascetics.
The Brahm-Almighty was present in pure energy-unrevealed form i.e., HE was formless.
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥
सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन में सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-काम रूप कारण को क्रान्त दर्शी ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।[ऋग्वेद 10.129.4]
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥
The Brahm desired to evolve-create at first, which led to the appearance of the seed (egg-golden shell, Hiranygarbh). The learned-scholars, Pandits applied their mind-intelligence & postulated-imagined the evolution of matter which was invisible (masked, shrouded).
तिरश्चीनो विततो रश्मिरषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्।
स्तोधा आसन् महिमान आसन् स्वधा अवस्तात् प्रयति परसतात्॥
फिर बीज धारण करने वाले पुरुष की उत्पत्ति हुई, तदनन्तर महिमाएँ प्रकट हुई। उन महिमाओं का कार्य दोनों पार्श्वों तक प्रशस्त हुआ। नीचे स्वधा का स्थान हुआ और ऊपर प्रयति का।[ऋग्वेद 10.129.5]
महिमा :: शोभा, प्रताप, प्रतिष्ठा, गर्व, यश, वैभव, गौरव, बड़ाई, इज़्ज़त; glory, majesty, dignity.
It led to the appearance of the Purush-Brahm which held the seed (egg, shell), followed by HIS glory-characterises. The lower level was acquired by own-self power & the top level was acquired by effort-to create.
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥
प्रकृति के तत्व को कोई नहीं जानता तो उसका वर्णन कौन कर सकता है!? इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण क्या है? विभिन्न सृष्टियाँ किस उपादान-कारण से प्रकट हुईं? देवगण भी इन सृष्टियों के पश्चात् ही उत्पन्न हुए, तब कौन जानता है कि यह सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई?[ऋग्वेद 10.129.6]
If no one is aware of the basics (root case) of evolution then who can elaborate it. What is the exact reason of evolution?! The demigods-deities appeared only after the evolution, then who knows how evolution took place?!
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥
ये विभिन्न सृष्टियाँ किस प्रकार हुईं, इतनी रचनाएँ किसने की, इस विषय में इन सृष्टियों के स्वामी हैं और दिव्य धाम में निवास करते हैं, वे जानते हैं। यह भी सम्भव है कि उन्हें भी ये सब बातें ज्ञात न हों।[ऋग्वेद 10.129.7]
How these creation were made-came into existence, who did that, only one who knows all this is the Almighty HIMSELF and HE is the master of all creations-evolution. HE resides in divine abode. HE is fully aware of all this. Its equally possible that HE too may be ignorant.
इस नासदीय सूक्त से विदित होता है कि परमेश्वर की जीवन-कथा रूप उनका सृजन-संहार कितना निगूढ है। नासदीय सूक्त (कथा) का स्पष्ट साङ्गोपाङ्ग अक्षर आर्ष भाष्य है। पुरुष सूक्त, जिसमें विराट-अखिल ब्रह्माण्ड के नायक की महिमा द्योतित है, उसके परमात्मा अनन्त हैं, उन (वेद) की कथा अनन्त है। विद्वान अनन्त रूपों में उसकी व्याख्या निर्वचन करते हुए अमृत पद में प्रतिष्ठित रहते हैं।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे॥
हे आप-जल! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You provide nourishment. Provide us with excellent eye sight & strength to enjoy the worldly goods.
Two third of human body constitute of water. Its essential for the body. It generate happiness-satisfaction after drinking when one feel thirst.
सुख से आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शान्ति आदि की अनुभूति होती है। इसकी अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। आन्तरिक सुख आत्मानुभव अनुकूल परिस्थितियों-वातावरण जुड़ा है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥
देवर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुख का अर्थ समझते हुए कहा कि किस व्यक्ति के पास ये निम्न 6 वस्तुएँ हों वह सुखी है :- अर्थागम, निरोगी काया, प्रिय पत्नी, प्रिय वादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थ करी विद्या।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः। उशतीरिव मातरः॥
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याण प्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
You should be beneficial to us just like the mother who's love overflows for the progeny.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणी मात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flowing liquid! You help the vegetation-food grain grow to nourish the living beings. We desire your company for our maximum growth.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
Hey water with the divine property of removing illness! We invite you to grant us happiness and prosperity.
These prayers are addressed to Varun Dev-deity of water.
शुद्धा: पूता भवत यज्ञियास:।
शुद्ध पवित्र बनो तथा परोपकार मय जीवन वाले हो।[ऋग्वेद 10.18.2]
One should be pure, pious, honest, righteous, virtuous. One has to be devoted-dedicated for service of the society-helping others. Always try to help one in destitute, trouble, difficulty, need, the down trodden & poor.
उप सर्प मातरं भूमिम्।
मात्र भूमि की सेवा करो।[ऋग्वेद 10.18.10]
Let us serve the mother earth (Our country). One must make efforts to preserve the sanctity of earth. There should be no war. All creatures have taken birth from this earth and ultimately, they will assimilate in it. One should act in such a way that they are-humanity is not wiped out.
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वमाहुर्विप्रतमं कवीनाम्।
न ऋते त्वत् क्रियते किं चनारे महामर्क मघवञ्चित्रमर्च॥
हे गणपते! आप स्तुति करने वाले हम लोगों के मध्य में भली प्रकार स्थित होइये। आपको क्रान्तदर्शी कवियों में अतिशय बुद्धिमान्-सर्वज्ञ कहा जाता है। आपके बिना कोई भी शुभाशुभ कार्य आरम्भ नहीं किया जाता, इसलिये हे भगवन्-मघवन्! ऋद्धि-सिद्धि के अधिष्ठाता देव! हमारी इस पूजनीय प्रार्थना को स्वीकार कीजिये।हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मों के पूरक हों। आपकी आराधना के बिना दूर या समीप किसी भी कार्य का शुभारम्भ नहीं होता। हे सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धा युक्त पूजा-अर्चना को अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ में सम्पन्न होने हेतु वर प्रदान करें।[ऋग्वेद 10.112.9]
Hey Ganpati! You should be present & honoured-respected amongest your devotees. You are marvellous poet amongst the Rishis who can foresee the future. You should help us accomplish the virtuous deeds-ventures. No auspicious deed begins without your prayers-wishes. Hey the master of assets and comforts! Kindly accept my prayer to grant me desired reward like the Yagy held for obtaining the desired yield.
शतायु। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥
साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।[ऋग्वेद 10.181.2]
Let us work-walk together and follow the eternal (righteous, pious, virtuous) path adopted by our ancestors.
सं गच्छध्वं सं वदध्वम्।
मिलकर चलो और मिलकर बोलो।[ऋग्वेद 10.191.2]
Let us walk together and speak together. Let us pray together. Generally, we do so in and hour of need-distress. Union is strength. One must not be isolated-cut off from the main stream-society. He should not be a recluse. The world-universe, should not be treated as fragments, sections, pockets. It should be perceived as one entity. There should be no dispute, trouble, confrontation, misunderstanding, tension, grudge. Let us have faith in universal brother hood.
संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्।
देवाभागंयथापूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
हम सब एक साथ चलें; परस्पर एक दूसरे के साथ बातचीत करें, हमारे मन एक हो। जैसे देवता एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करते हैं और आदर-सम्मान पाते हैं।[ऋग्वेद 10.191.2]
Let us move (work) together harmoniously, speak together, understand each other's minds, just as the demigods have been doing from the ancient times. That why they are honoured-respected.
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रयेव: समानेनवोहविषाजुहोमि॥
इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्त:करण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों। द्वेषभाव न हो।[ऋग्वेद 10.191.3]
The Purohit-Achary preforming Yagy should enchant the Mantr in unison. Their innerself and the mental status-enlightenment should of the same level-status. They should be free from enmity.
ऋग्वेद का आद्य मांगलिक संदेश ::
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥
स्वयं आगे बढ़कर लोगों का हित करनेवाले, प्रकाशक, ऋतु के अनुसार यज्ञ करने तथा देवों को बुलाने वाले और रत्नों को धारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।
आद्य :: आदि, मूल; primitive, primordial.
I pray to the Agni-deity of fire, who illuminates all, performs Yagy as per the season (sowing crops, mating and performing all useful deeds), who invites the demigods-deities, bearing jewels-ornaments.
कामधेनु ::
उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम्।
श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचम्॥
मैं दूध देने वाली गाय का आव्हान करता हूँ। दूध काढ़ने-निकलने में सिद्धहस्त व्यक्ति यह कार्य करे। सविता देव हमारे द्वारा निकाले गए इस दूध को स्वीकार करें, यह उनकी शक्ति-ऊर्जा को बढ़ायेगा।[ऋग्वेद 1.164.26]
I invoke the cow that is easily milked, that the handy milker may milk her; may Savita accept this our excellent libation, that his heat may thereby increase; it is for this, verily, that I earnestly invoke him.
I call this milking cow. A person skilled in milking milks it. Savita Dev should take the best part of our somersault, because it will increase his brilliance. That's why I call upon them.
I call this easy to milk Dhenu. Skilled harnessers milk it. Make us happy, Savita. I call for his glory.
I call the milch cow. An expert in milking milk her. Let Savita Dev accept the best of our Somras. It will increase his aura-energy. I invite him.
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्।
दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥
धनशाली गाय बछड़े के लिए मन ही मन व्यग्र होकर रँभाती हुई आती है। कभी भी वध न करने योग्य गौ को मानव समुदाय के महान् सौभाग्य की वृद्धि करती हुई प्रचुर मात्रा में दुग्ध प्रदान करती है।[ऋग्वेद 1.164.27]
बछड़े की कामना से रंभाती हुई दुग्धवती गाय हमको प्राप्त हुई। वह अहिंसा के योग्य अश्विनी कुमारों के लिए दूध दे, सौभाग्य लाभ को बढ़ाये।
The cow come mooing for her calf. It never deserve killing being auspicious for the humanity, providing sufficient milk.
गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ।
सक्काणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः॥
आँखें नीचे किए हुए बछड़े के पास जाकर गौ रम्भाती है। बछड़े के सिर को चाटते हुए वात्सल्य पूर्ण शब्द करती है। उसके मुँह के पास अपने दूध से भरे थनों को ले जाती हुई शब्द करती है। वह दुग्धपान कराते हुए (स्नेह से) शब्द करते हुए (अपने) बछड़े को शान्त करती हैं।[ऋग्वेद 1.164.28]
नेत्र बंद करते हुए बछड़े की पीछे ध्वनि करती हुई गाय बछड़े के मुख को चाटती है। इसके होठों को थन से लगाने कर कामना से वृद्धि करती हुई रम्भाती है। उसके थनों में दूध पूर्ण हो जाता है।
The cow moo, keeping its eyes low, moving to the calf. It licks the head of the calf. Bring its head to her udder. Calms down the calf by feeding him.
अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता।
सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्य विद्युद्धवन्ती प्रति वव्रिमौहत॥
गाय के चारों ओर घूमकर बछड़ा अव्यक्त शब्द करता है और गोचर भूमि पर गाय 'हम्बा' शब्द करती है। गाय पशु ज्ञान द्वारा मनुष्यों को लज्जित करती हैं और द्योतमान् होकर अपना रूप प्रकट करती है।[ऋग्वेद 1.164.29]
बछड़ा निःशब्द गाय के सभी ओर घूमता है। धेनु रंभाती हुई अपनी पशु चेष्टाओं से प्राणी को लजाती है, परन्तु निर्मल दूध देकर उसे प्रसन्न करती है।
The calf roams around the cow quietly. The cows moos. Cow shames the humans due to her sense of recognition.
Emphasis should be on the most differentiating trait of human beings unity in purpose, method and approach.[Rig Ved 10.191]
Let us walk together in the path of truth without bias, injustice and intolerance, talk to each other to enhance knowledge, wisdom and affection without malice and hatred, keep working together to enhance knowledge and bliss and follow the path of truth and selflessness as exemplified by noble people. [Rig Ved 10.191.2]
One's analysis of right and wrong should be unbiased and not specific to particular set of people. He should organise together to help everyone enhance his health, knowledge and prosperity. His mind should be devoid of hatred and should see progress and happiness of all as one’s own progress and happiness and he should only act for enhancement of happiness of all based on truth. Every one should work together to eradicate falsehood and discover the truth. One should never deviate from the path of truth and unity.[Rig Ved 10.191.3]
One's efforts should be directed-channelized to enthusiasm and bliss-happiness of everyone. His emotions should be for every one and all and love all the way he loves himself. His desire, resolve, analysis, faith, abstinence, patience, keenness, focus, comfort etc., all should be towards truth and bliss for all, and away from falsehood. He should keep working in synergy to increase each others’ knowledge and bliss-the Ultimate.[Rig Ved 10.191.4]
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: दृषे विश्वाय सूर्यम्।
उदय होते सूर्य की किरणें जातवेदसं बुद्धिमान के लिए ईश्वर की कृपा से उत्पन्न कल्याणकारी पदार्थों के वाहक के रूप में प्राप्त होती हैं, जबकि सामान्य विश्व के लिए सूर्य दृष्टीगोचर होता है।[ऋग्वेद 1.125.1]
Life is present on earth due to the Sun light which helps in growing crops, results in rains, provides light to see and kill germs.
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥
दिवस के उदय को प्राप्त होते हुए, मित्रों में महासत्कार के योग्य उदय होते हुए सूर्य और प्रकाश संश्लेषण से उत्पन्न हरियाली से हमारे हृदय और दूसरे हरणशील (पीलिया) आदि रोगों का नाश होता है। नवजात शिशु सामान्य रूप से आज कल पीलिया (Jaundice) रोग से ग्रसित होते हैं। आधुनिक अस्पतालों में बच्चों की नर्सरी में जन्मोपरान्त पीलिया से पीड़ित बच्चों के उपचार के लिए कृत्रिम सूर्य के प्रकाश का प्रबंध होता है। कोई कोई चिकित्सक नवजात बच्चे को सूर्यस्नान कराते हैं।[ऋग्वेद 1.50.11]
Plants grow and prepare food in the presence of Sun light with the help of chlorophyll in the leaves. The process is called photosynthesis. If the new born is suffering from jaundice he is subjected to Sun bathing in mild light in the morning.
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं निदध्मसि॥
रोपित हरे वनस्पतियों, कुशा घास, हरे चारे इत्यादि पर पोषित दुग्ध में रोग हरण क्षमता है। इस लिए ऐसे हरे चारे पर पोषित गौओं के दुग्ध का सेवन करो। आज विश्व के विज्ञान शास्त्र के अनुसार केवल मात्र हरे चारे पर पोषित गौ के दुग्ध में ही Conjugated Linoleic Acid और Omega 3 वांछित मात्रा मे आवश्यक वसा तत्व मिलते हैं। केवल यही दुग्ध मानव शरीर के सब स्वजन्य रोग निरोधक और औषधीय गुण रखता है। सब वनस्पति के बीजों में जो तैलीय तत्व होता है उसे वैज्ञानिक ओमेगा 6, Omega 6 नाम देते हैं। आज कल के सब प्रचलित रिफाइन्ड खाद्य तेलों में मुख्यत: केवल ओमेगा 6, Omega 6 ही होता है।[ऋग्वेद 1.50.12, अथर्ववेद 1.22.4]
The milch animals who are fed with green grass, green fodder, green leaves of the plants produce milk, which is rich in Omega 3 & Omega 6. Omega 3 is found to be anti obesity, anti cancer, anti atherosclerosis-heart and brain strokes due to clogging of arteries and High blood pressure, anti Diabetes in short preventive as well as a medicine against all Self degenerating Human diseases.
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह।
द्विषतम्मह्यं रधयमो अहं द्विषते रधम्॥[ऋग्वेद 1.50.13]
उदय होते सूर्य के द्वारा विश्व को साहस सामर्थ्य प्रदान करके, धर्माचरण पर न चलने वालों के शत्रु रूपी रोगों को नष्ट करके, आनन्द के साधन प्राप्त होते हैं।
Sun light in the early morning is soft, pleasant, nourishes the individual and grants him strength to follow religiosity-honesty.
कद रुद्गाय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे।
वोचेम शंतमं हृदे॥[ऋग्वेद 1.43.1]
विद्वान पुरुष कब महान रोग नाशक रुद्र की हृदय के लिए सुखदायी शांति की प्रशंसा के स्तोत्र सुनाएंगे ?
Rudr is Almighty's Ultimate form-quality. He is being asked to elaborate the verse which grants good health from the Sun light.
यथा नो अदितिः करत् पश्वे नृभ्यो यथा गवे। यथा तोकाय रुद्गियम्॥
अदिति से यहां तात्पर्य सन्धिवेला के आदित्य से है। संधि वेला का सूर्य राजा, रंक, पशुओं, गौवों सब के अपनी सन्तान की तरह रुद्र रूप से रोग हरता है।[ऋग्वेद 1.43.2]
The Sun light during the juncture of day & night is valuable for the humans.
यथा नो मित्रा वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति। यथा विश्वे सजोषसः॥
प्राण व उदान सूर्योदय के समय उसी प्रकार स्वास्थ्य प्रदान करते हैं जैसे विद्वान पुरुषों के उपदेश के अनुसार सूर्य की किरणों से उत्तम जल, प्रकाश संश्लेषण औषधीय रस से हरी शाक इत्यादि।[ऋग्वेद 1.43.3]
The Sun light grants life to plants, who in turn feed, all species directly or indirectly. It regulates the breath as well.
गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम्। तच्छंयोः सुम्नीमहे॥
अनिष्ट को दूर करके सुख शांति के लिए, विद्वान लोग स्वास्थ और उत्तम जल के औषध तत्वों के ज्ञान का उपदेश करें।[ऋग्वेद 1.43.4]
Advise is sought to obtain peace-tranquillity and solace for health, pure water and enlightenment.
यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते। श्रेष्ठो देवानां वसुः॥
जो सुवर्ण जैसा दीखता सूर्य है, वही देवताओं मे श्रेष्ठ और महान वीर्यादि तत्व प्रदान करता है।[ऋग्वेद 1.43.5]
The Sun with golden hue is excellent among the demigods and grants energy to survive.
शं नः करत्यर्वर्ते सुगं मेषाय मेष्ये। नृभ्यो नारिभ्यो गवे॥
वही हमारे समस्त पशु, पक्षियों, राजा, रंक, नारी, गौ सब का रोग नष्ट कर के स्वास्थ्य प्रदान करता है।[ऋग्वेद 1.43.6]
The Sun behind all faculties which grants good health to all by eliminating diseases. The Almighty says that Sun is Sury Narayan, i.e., one of his Ultimate forms to nurture the universe.
अस्मे सोम श्रिय मधि नि धेहि श्तस्य नृणाम्। महि श्रवस्तुविनृम्णम्॥
हमें यह ज्ञान होना चाहिये हमारी सेंकडों की संख्या के लिए वह एक अकेला तेजस्वी अन्न, औषधी, बल प्रदान करने में समर्थ है।[ऋग्वेद 1.43.7]
One should be aware that Sun helps in production of crops-food grains, medicines and strength.
मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त। आ न इन्दोवाजे भज॥[ऋ 1.43.8]
हमारे ज्ञान मे विघ्न डालने वाले और धन के लोभी हमें न सतावें। हमारा ज्ञान हमारा बल बढावे।
Its prayed that those who disrupts the knowledge and are greedy should not interfere in gaining of spirituality-enlightenment.
यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन् धामन्नृतस्य।
मूर्धा नाभा सोम वेन आभूपन्तीः सोम वेदः॥[ऋग्वेद 1.43.9]
अमृत और सत्य श्रेष्ठ ज्ञान सदैव हमारा मार्ग दर्शन करके, हमें उत्तम स्थान पर प्रतिष्ठित करें।
Nectar-elixir & truth should always guide one to attain the Ultimate abode in the universe, the abode of the God, which is available through devotion.
हृदय स्वास्थ्य यज्ञ ::
ऋग्वेद (1-43) :: ऋषि कण्वो घोरः, देवता रुद्र:, मित्रा-वरुण, सोम।
कद रुद्गाय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे। वोचेम शंतमं हृदे॥
विद्वान पुरुष कब महान रोग नाशक रुद्र की हृदय के लिए सुखदायी शांति की प्रशंसा के स्तोत्र सुनाएंगे?[ऋग्वेद 1.43.1]
यथा नो अदितिः करत् पश्वे नृभ्यो यथा गवे। यथा तोकाय रुद्गियम्॥
अदिति से यहां तात्पर्य सन्धिवेला के आदित्य से है। सन्धिवेला का सूर्य राजा रंक, पशुओं, गौवों सब के अपनी संतान की तरह रुद्र रूप से रोग हरता है। [ऋग्वेद 1.43.2]
यथा नो मित्रा वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति। यथा विश्वे सजोषसः॥
प्राण व उदान सूर्योदय के समय उसी प्रकार स्वास्थ्य प्रदान करते हैं जैसे विद्वान पुरुषों के उपदेश के अनुसार सूर्य की किरणों से उत्तम जल, प्रकाश संश्लेषण-Photosynthesis औषधीय रस से हरी शाक इत्यादि।[ऋग्वेद 1.43.3]
गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम्। तच्छंयोः सुम्नीमहे॥
अनिष्ट को दूर करा के सुख शांति के लिए, विद्वान लोग स्वास्थ और उत्तम जल के औषध तत्वों के ज्ञान का उपदेश करें।[ऋग्वेद 1.43.4]
यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते। श्रेष्ठो देवानां वसुः॥
जो सुवर्ण जैसा दीखता सूर्य है, वही देवताओं मे श्रेष्ठ और महान वीर्यादि तत्व प्रदान करता है।[ऋग्वेद 1.43.5]
शं नः करत्यर्वर्ते सुगं मेषाय मेष्ये। नृभ्यो नारिभ्यो गवे॥
वही हमारे समस्त पशु, पक्षियों, राजा, रंक, नारी, गौ सब का रोग नष्ट कर के स्वास्थ्य प्रदान करता है।[ऋग्वेद 1.43.6]
अस्मे सोम श्रिय मधि नि धेहि श्तस्य नृणाम्। महि श्रवस्तुविनृम्णम्॥
हमें यह ज्ञान होना चाहिये हमारी सेंकडों की संख्या के लिए वह एक अकेला तेजस्वी अन्न, औषधी, बल प्रदान करने में समर्थ है।[ऋग्वेद 1.43.7]
मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त। आ न इन्दोवाजे भज॥
हमारे ज्ञान मे विघ्न डालने वाले, और धन के लोभी हमें न सतावें।
हमारा ज्ञान हमारा बल बढावें।[ऋग्वेद 1.43.8]
यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन् धामन्नृतस्य।
मूर्धा नाभा सोम वेन आभूपन्तीः सोम वेदः॥
अमृत और सत्य श्रेष्ठ ज्ञान सदैव हमारा मार्ग दर्शन कर के हमें उत्तम स्थान पर प्रतिष्ठित करें।[ऋग्वेद 1.43.9]
अपने स्वास्थ्य लाभ के हेतु आहार, व्यवहार, उपचार के साथ परमेश्वर स्तुति व्यक्तिगत, सामाजिक मानसिकता और पर्यावरण अनुकूल बनाने के लिए इस यज्ञ को भी सम्पन्न करना हित कर होगा।
इस यज्ञ का विधान रोग निवृत्ति हेतु मनुष्यों, गौओं अश्वों इत्यादि के लिये किया जाता है। गोशाला में किये गए इस यज्ञ को शूल्गवां यज्ञ कहते हैं।
प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान् प्रतिगृह्या नि धत्ते।
तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचते सुवीरः॥
प्रातःकाल का सूर्य उदय हो कर बहुमूल्य रत्न प्रदान करता है। बुद्धिमान उन रत्नों के महत्व को जान कर उन्हें अपने में धारण करते हैं। तब उस से मनुष्यों की आयु और संतान वृद्धि के साथ सम्पन्नता और पौरुष बढ़ता है।[ऋग्वेद 1.125.1]
वैज्ञानिकों के अनुसार केवल UVB किरणें, जो तिरछी पृथ्वी पर पड़ती हैं, संधि वेला प्रातः सायं की सूर्य की किरणें ही विटामिन डी उत्पन्न करती हैं।
[ऋग्वेद 1.50.11, 1.50.1]
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:। दृषे विश्वाय सूर्यम्॥
उदय होते सूर्य की किरणें जातवेदसं ईश्वर की कृपा से उत्पन्न कल्याणकारी पदार्थों के वाहक के रूप मे प्राप्त होती हैं, जब विश्व के लिए सूर्य दृष्टीगोचर होता है।[ऋग्वेद 1.50.1]
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥
दिवस के उदय को प्राप्त होते हुए, मित्रों में महासत्कार के योग्य उदय होते हुए सूर्य और प्रकाश संश्लेषण से उत्पन्न हरियाली (greenery by photosynthesis) से हमारे हृदय और दूसरे हरणशील (पीलिया) आदि रोगों का नाश होता है।[ऋग्वेद 1.50.11]
नवजात शिशु सामान्य रूप से आज कल पीलिया-jaundice रोग से ग्रसित होते हैं। आधुनिक अस्पतालों में बच्चों की नर्सरी में कृत्रिम सूर्य के प्रकाश का प्रबंध होता है। कोई-कोई चिकित्सक-नवजात बच्चे को सूर्य स्नान भी कराते हैं।
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं निदध्मसि॥
रोपित हरे वनस्पतियों कुशा घास हरे चारे इत्यादि पर पोषित दुग्ध में रोग हरण क्षमता है। इस लिए ऐसे हरे चारे पर पोषित (गौवों) के दुग्ध का आरोग्य के लिए सेवन करो।[ऋग्वेद 1.50.12, अथर्व 1.22.4]
आज विश्व के विज्ञान के अनुसार केवल मात्र हरे चारे पर पोषित गौ के दुग्ध में ही CLA (Conjugated Linoleic Acid) और Omega 3 वांछित मात्रा में आवश्यक वसा तत्व मिलते हैं। केवल यही दुग्ध मानव शरीर के सब स्वजन्य रोग निरोधक और औषधीय गुण रखता है। इस स्थान पर वेदों में एक और आधुनिक वैज्ञानिक विषय photosynthesis प्रकाश संश्लेषण का उपदेश भी प्राप्त होता है। सब वनस्पति के बीजों में जो तैलीय तत्व होता है उसे वैज्ञानिक ओमेगा 6, Omega 6 नाम देते हैं। आज कल के सब प्रचलित रिफाइन्ड खाद्य तेलों में मुख्यत: केवल ओमेगा 6, Omega 6 ही होता है। विज्ञान बताता है की अंकुरित होने पर सूर्य के प्रभाव से photosynthesis प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया से ओमेगा 6 हरे रंग को धारण करता है जिसे आहार में ग्रहण करने पर ओमेगा 3 पोषक तत्व उपलब्ध होता है । यही गौ के पोषण मे हरे चारे का महत्व है।
Omega 3 is found to be anti obesity, anti cancer, anti atherosclerosis heart and brain strokes due to clogging of arteries and High blood pressure, anti Diabetes in short preventive as well as a medicine against all Self degenerating Human diseases.
उदगादयमादित्यो विश्व न सहसा सह।
द्विषतम्मह्यं रधयमो अहं द्विषते रधम्॥
उदय होते सूर्य के द्वारा विश्व को साहस सामर्थ्य प्रदान कर के, धर्माचरण पर न चलने वालों के शत्रु रूपी रोगों को नष्ट करके,आनन्द के साधन प्राप्त होते हैं।[ऋग्वेद 1.50.13]

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)